Sunday, December 19, 2010

एक इम्तिहान और भी है!

देखो ज़रा मुड़ कर इस तरफ और बोलो
मेरा बचपन मेरे वजूद से जुड़ गया गया है जैसे
थाम कर दामन मेरा, कहता है मुझसे
मैं कल था तुम्हारा
और वह जो गुज़र रहा है तुम्हारे साथ।
सब बातें , सारे फ़साने, और गुजरे हुए वह कुछ पल
किनको मैं बताऊँ अपने साथ हुए हादसों के बारे में
जो मेरा था कहीं रह गया इन्ही मुंडेरों पर
जैसे लटका रहता है चम्गादर
डराता रहता।
और मैं फिर भी नहीं छोड़ता
दामन अपने माजी का
रोता रहा देर तक
थाम कर हाथ उसका
गीले हूआ मेरे आंसू से उसका मन भी।

Thursday, December 2, 2010

एक भय है

काले से रास्ते

सफ़ेद धुआं

डर हो रहा गुंजायमान लोग भागते अनगिनत दिशाओं में

लिए अपने चेहरे अपने हाथों में

देखते रहे आसमान को

कोई करिश्मा होने वाला हो जैसे

तभी एक बूँद टपका कहीं से

लोग दौड़ पड़े बेतहाशा

एक दूसरे पर गिरते पड़ते

ओह यह तो दूध का बूँद है

बिलकुल सफ़ेद

वैसा जैसे अमृत

सफ़ेद मगर कितना पारदर्शी।

लेने को बढाया हाथ मगर

दूरियां लम्बी होती गयी

मेरी पहुँच से बहार

दूध की बूँद

अब अमृत हो गयी.


Sunday, November 14, 2010

देखो तो यह अंगड़ाई

सुबह होने को है और नींद है कि थमती ही नहीं
रात है की दामन छुड़ाती ही नहीं
फ़िक्र है मुझे तो सिर्फ इस बात का यारों
यह कौन सा मलाल है जो दिल के खानों से जाती ही नहीं।
इस बात का गुरूर है की मुझे जानता है कोई
एक बार मिला तो पूछा मेरा नाम
देखो तो माजी से झाँक कर पुकारता है कोई
देखो तो यह अंगड़ाई, जान मेरी छोड़ेगी ही नहीं।
मैं नहीं वह कोई और होगा तुम्हारे याद में रोने वाला
मैं नहीं कोई और होगा उस बियाबान में राहें खोजने वाला
मैं तो तुम्हारी याद में रहा होश में हमेशा
तभी तो तुम्हारी याद है कि रोने ही देती ही नहीं।

Saturday, November 13, 2010

ख्याल

ऐसे में आता है एक ख्याल बार बार
क्यों मिले थे हम, क्यूँ हुए अब तार तार।
मिलने की ख़ुशी थी न अब है जुदाई का ग़म
मेरे हसीं यार हम कैसे हुए इतने बेज़ार।
किसी और ज़मीन पर, गैरों से करो प्यार
यह कैसा इम्तिहान है, यह किस तरह का मलाल।
ज़ाहिर न करो मुहब्बत तो इज़हार -ए-शिकायात तो करो
मेरे नसीबे यार, कुछ तो करो इकरार।
मैं चला जाऊँगा मगर इतना तो बताओ
किस सिम्त गयी खुशियाँ, कहाँ गया सारे जहाँ का प्यार?

Tuesday, November 9, 2010

क्या सुनाऊँ मैं

आज चुप हूँ मैं
जो चाहता था कहना
वही बात मुझ पर बाकी है
हर किसी को सुनना अपनी कहानी
इतना आसान भी तो नहीं।
सोचा तो था कि थाम कर हाथ किसी का
कहेंगे बात दिल कि
मगर कुछ कहता
उस से पहले ही वह शर्मा गया।
बीत गया इतना वक्त और हमने कुछ कहा ही नहीं
बस बैठ कर गुल मोहर के नीचे
चुनते रहे रंगीन फूल
भर भर अंजुली।


Monday, November 8, 2010

एक बात कहनी है मुझे

मेरा सन्देश
अनसुना गया
इस लिए तुम्हारी दस्तक
मैंने सुना ही नहीं।
हिसाब बराबर।

मेरी कहानी

सुनी मैंने
अपनी कहानी
उसकी ज़बानी
आधी सच्ची
आधी बेमानी।
अजीब सी थिरकन
उड़ता है मन
लो पकड़ लो
धागा इस पतंग का
तुम्हारे हाथों
कितना महफूज़ मैं।
ऊपर आकाश में
देखता नीचे
कितनी छोटी लगती तुम
कितना हल्का लगता मैं
विस्मृत मैं
ताकता ही रहा
और हल्का होता गया मैं.

Friday, November 5, 2010

ऐ रंगरेज़ सुनो

मेरा एक यथार्थ तो यह भी है
कि मैं भी बदल कर रंग रूप
देखना चाहता हूँ ऊपर तक उड़ते पक्षियों को
जो बनाते हैं एक तारतम्य।
पीली रौशनी में
जो कुछ देखा मैंने
छू कर जो भी किया महसूस
उसी सोच का
उसी के बहाने
पीली सड़कों पर
चलता हुआ
पहुंचा गंतव्य तक।
लेकिन वहां तो बादलों के नीचे बना एक
तिनकों का घोंसला
दिया उसको एक नाम
बताना क्या?

एक सफा पीला सा

तुम्हारे हाथ का लिखा हर अलफ़ाज़
अब भी ज्यों जाड़े में लगे घाव की तरह कितना नया लगता है
छू कर देखा तो हर हर्फ़ में चुभन महसूस होती है
ठन्डे पड़े हाथ को राख से क्या?
ज़ेहन में आया एक ख्याल
पेशानी पर उग आया पसीना
मुंह में खट्टा सा स्वाद
हाथों में एक नयी जुम्बिश
तुम्हारे बिस्तर के नीचे रखे
उन पीले पड़ गए कागजों पर
लिखी क्या दास्ताँ
किसकी कहानी
किसकी ज़बानी
किसको सुनाना है
कहाँ से शुरू
कहाँ तक जाना है
इतने सारे सवालों का
कोई जवाब होगा क्या?

Tuesday, November 2, 2010

नयी ग़ज़ल

उस बात का न करो ज़िक्र, दर्द यहाँ होता है
तुहारी हकीकतें और मेरा सच, सब बयान होता है।
कल देर रात गए तुमने पूछा था क्या बात है
मैं कैसे बताऊँ कि हर सच के पीछे एक और सच छुपा होता है।
तुम्हारे राज तो दफन कर लिए सीने में मैंने मगर,
अपने दर्द को छुपाने में कुछ और ही मज़ा होता है।
हर शख्स के सीने में एक तूफ़ान देख रहा हूँ मैं
चलो किसी टीले कि ओट में आशियाँ तलाशते हैं।

क्या बात?

उसने कहा
क्या बात
मैंने सोचा क्या हुई बात
क्यों मैं समझ नहीं पाया
कि क्या हुई बात?
क्यों होता रहा उसी फ़साने का ज़िक्र
वही जो कभी हुई नहीं
वही जो कभी होती नहीं
वही सच क्यों लगता है?
रुई के फाहे सा
सर्दी में गर्म चादर सी
तुम आये
और आया तुम्हारा ख्याल
क्या यह भी ख्वाब ही है?

Saturday, October 30, 2010

मैं लिखता हूँ इस लिए..

बैठा समुद्र के किनारे
सोचता रहा देर तक
क्यों लिखता हूँ मैं
क्या लिखता हूँ मैं
कौन पढता है मुझे
कितना बेमानी है यह लिखना-पढना
सच बस एक है
वही जो हम भोगते हैं
वही जो हम सोचते हैं
जीवन को जीने का अंतर्द्वंद
मुझे स्मरण कराता अहर्निश।
अपने आप को करता विस्मृत
थामे कलम को
करता रहा काले सफ़ेद पन्ने
इन पृष्ठों का क्या कोई अपना भी
फ़साना होगा क्या?
यही सोचते कट गया एक और सफ़र
अनंत सा सफ़र
और अनादी इच्छाएं
एक साधारण सा मनुष्य
मगर असाधारण इच्छा
कि बनूं एक अच्छा इंसान
मगर लगता है
है कितना कठिन यह भी
जैसे मिठाई का मीठे के सिवा कुछ भी होना
कितना असार्थक होता
वैसे ही
मेरा मनुष्य होना कितना साधारण
मनुष्य होने कि चाह कितना असाधारण!



Wednesday, October 27, 2010

किसने कहा कि में हूँ !

एक आवाज़ उठी है पूरब से
कुछ दिखा है मुझे हर तरफ
सोचने को जब नहीं हो कुछ भी बाकी
ज़िन्दगी अपने आप में कितनी अधूरी
बस बिलकुल मेरी कहानी की तरह।
मेरे अफ्सानो का तर्जुमान कोई करे तो क्या करे
हर्फ़ मिटे जाते हैं
मानी है कि मिलती नहीं
लफ़्ज़ों की हकीक़त अब क्या बताऊँ
मैं खुद से हैरान हूँ।
तुम सुनो तो कहूं
एक दम से एक रक्कासा जैसे नाच उठे
मेरे पाँव में हुई थिरकन
मेरे ख्यालों में हरकत
मेरे बाँहों में उठ रही कशमकश
मैं तो ज्यों मिट चला हूँ
मैं जैसे हूँ ही नहीं
तुम हो जैसे सब तरफ
न जाने यह क्या हो रहा है मुझे!

Thursday, October 7, 2010

एक दिन ऐसा भी हुआ था

टूटे आसमान का एक टुकड़ा लिए हाथ में
एक प्रयास टुकड़े को थामने का
हो गया पूरा शरीर नीला
पीला हो रहा चेहरा
मगर क्या हो गया आसमान के नीलेपन को
एक टुकड़ा ही तो लिया है
क्यों पूरा रंग चला गया
लगा सोचने रख कर सर हाथों में।
इतने में बदल गया रंग
मेरे चेहरे का
उड़ता रहा धुल जैसा गुबार
चुभता रहा आँखों में देर तक
लिए रुमाल हाथों में
अपनी फूंक से गरम कर, सेंकता रहा
तब उठा कर नज़र देखा तो
उफ़ यह क्या!
आसमान का रंग तो लाल हो गया था।

Wednesday, October 6, 2010

सनसनाती ख़ामोशी

क्यूँ सब हैं इतने खामोश
किस बात पर हैं सब हैरान
जब सोचने को नहीं हो कुछ बाकी
तो क्या देखेंगी आँखें।
अब जब कि में थक सा गया हूँ
मुझसे लम्बी दौड़ क़ी उम्मीद कैसी
कैसे करते हैं मेरी पहचान से गुफ्तगू
और में हूँ कि अकेला
अपने आप में सिमटा
बिलकुल खामोश
सुनता रहा
आने गिर्द फैली
सनसनाती हुई ख़ामोशी
जैसे कोई खेलाता है
गोद में एक छोटा सा बच्चा।

Sunday, October 3, 2010

देखो यही सच है

मेरे क़दमों को देखते चलो
उस राह का आगाज़ देती है
जिस पर और भी चले थे
मगर उन्हें अब याद नहीं
अगर इस राह का कोई होता अपना वजूद
तो समझ लो
वह भी
मेरी ही तरह मुझ से कतरा कर चलता और
मैं
अपनी याद का डब्बा लिए
चल दिया उस दिशा में
जहाँ दिखा था धुआं उस दिन।

Monday, September 27, 2010

दो बूँद

आज चाँद कैसे मेरी पेशानी पर चमक रहा है
क्यूँ ऐसा है कि में सर्द हो रहा हूँ
क्यूँ है कि मेरी सारी कायनात मेरे में सिमट रही है
क्यूँ मैं बस यूँ ही सर्द -ज़र्द तुम्हारे ख्यालों से लिपट कर रो रहा हूँ ।

बोलो तो.....

न हो सर पर आसमान तो क्या फ़िक्र
पांव के नीचे ज़मीन नहीं तो क्या फ़िक्र
ज़ुल्म सहने की अब आदत सी पड़ गयी है यारों
न हो पेट में दाना ओर तन पर कपडे तो क्या फ़िक्र।
तुम्हारी सियाह किस्मत पर लगाते हैं चांदनी का लेप
सुर्ख हो रही आदतों को लपेट कर पेशानी पर
जब बोलने को हो कुछ नहीं मगर चुप रहना मुमकिन नहीं
वह कहते हैं कि यही आगाज़ है कल की सुबह का।
मैं नहीं जानता कि सच के क्या रंग हैं
कितनी हवस है मेरी सोच में अपना वजूद जान ने की
मेरे दोस्तों की कतार जरा छोटी है
बस मेरी उमीदें अब मेरी चादर से लम्बी हो गयी हैं।

Sunday, September 26, 2010

एक ख्वाब धुंधला सा

कल रात दिखा मुझे माजी के फ़साने
कुछ सीधे कुछ टेढ़े
थामने को बढाया हाथ तो फिसल गए हाथों से
उड़ने लगी उम्मीदें
फ़ैल गए अरमान
छोटे पड़ गए दामन
लेट कर ज़मीन पर ताकता रहा नीले आसमान को देर त़क
अब तारे भी नहीं दीखते
चाँद तो पहले भी अजनबी था
अब तो हँसता भी नहीं।
देर से चल रही है तेज हवा
शायद तारे बह गए हवा के साथ
मेरा हाथ काँपता है
पकड़ नहीं पाता मैं चाँद को भी
देखो जरा मेरी पेशानी पर तारे उग आए हैं
हर किसी को पूछता हूँ उसका पता
सब सर हिलते हैं
कोई कुछ कहता नहीं।
हवा में बसी है धानी सी मस्ती
तुम्हारे हाथों की खुशबू
तुम्हारे चेहरे का तिल
तुम्हारे हाथों की स्वप्निल खुमारी
सोचता रहा
क्या कहूँगा इस बार.

Saturday, September 25, 2010

रहो खामोश.

देखो चारो तरफ
यह कैसी चुप्पी फैली है
महज कुछ लोगों के सांस लेने कि आवाज़
बस बोलती हैं अपनी उम्मीदें
बाकी सब चुप।
कैसे कहें कि किसके मुंह में है ज़बान
बोलता तो कोई कुछ भी नहीं
देखते सो सभी हैं
पर कहते कुछ नहीं
बस सर निचे किये चले जाते हैं।
और मुझे लगता है
इतना कुछ है देखने को
इतना कुछ है कहने को
फैली है दुर्गन्ध चारो तरफ
रुमाल से रूकती नहीं
चुभती है आँखों में।
या फिर ऐसा कहें
सड़क पर बिछा कर कालीनें
बंद कर हर दरवाज़े
कानों में ठूंस लें इतर के फाहे
और तुम्हारी ही तरह
बैठे चुप और मुस्कराए!
जब तक जिंदा हूँ ऐसा कैसे हो सकता है!!

Friday, September 24, 2010

एक लड़की को प्यार हुआ है !

देखो तो इस प्यारी सी लड़की के चेहरे पर
एक तिलस्मी मुस्कान है
जैसे जाड़े की सुबह में सुबकती हुई धुप
जैसे गर्मी पहली बारिश की सोंधी सी महक
जैसे उसके कंधो पर पड़ा पीला दुपट्टा
प्यार तो हुआ ही है।
मैंने पूछा तो बोली
प्यार कैसे होता है
अब इस सादगी पर जान कैसे न दें
कैसे बताऊँ की प्यार इस अनछुई अनजानी सी ख्याल का नाम है
तुम्हारे हाथ को छु कर देखा
फिर डर लगा
कहीं मुझे प्यार न हो जाये !

Sunday, August 15, 2010

सुनो पाठक जी

मेरे अनजाने अनसुने पाठक लोग
(क्या है भी कोई)
संशय मेरे मन में
कौन पढता है कविता अब
जब लोगों में खूबसूरती देखने कि चाह ही नहीं हो बाकी
और न हो हिम्मत अपने बदसूरत चेहरे देखने का
जब सोच कुंद हो गयी हो
और दिमाग पैसे से भर गया हो
किताबें रद्दी में बेचीं जाती हों
कौन पढ़ेगा कविता?
एक सहज अनुभूति
कुछ पुरनम आँखें
कुछ भीगे से एहसास
अब तो बाज़ार में भी नहीं मिलते
लोग लायें तो कहाँ से ।

Tuesday, August 3, 2010

फिर वही ढेर सी रातें

देखो चाँद को तो ऐसा लगता है
जैसे रात अब जाएगी नहीं
ठहर कर मेरे पीपल के पेड़ पर
मेरे आँगन कि मुंडेर पर
बैठा एक कौव्वा
मेरे घर आने का दावत सभी आने जाने वालों को दे रहा है।
एक सच जो कई रातों से काट रहा है मुझे
कभी सुना था किसी से कि
काली अँधेरी रात को
जब अँधेरा बढ़ता है
पलकों में नींद और आँखों में सपने बसने लगते हैं।
तोड़ कर रख लेते हैं जैसे
अपनी क्यारी से निकले
गोभी के फूल हों
न सही गुलाब, न होंगे कांटे
मगर कभी देखा है गुलाब को फूलदान में सजे हुए
उसकी किस्मत है थाली में परोसा जाना
जैसे चाँद को डूबना ही होता है सुबह के आने से पहले।
क्या खेल हैं किस्मत और फितरत के!

Monday, July 26, 2010

ग़ालिब जी

देखा ग़ालिब को तो और ठहर गया मैं
डीडीए के ऑफिस में एक एल आयी जी फ्लैट के लिए
लाइन लगाये खड़े थे।
पीछे खड़े आदमी ने पूच्छा
भाई कोई जन पहचान है यहाँ
कोई सिफारिश
या कोई एम् एल ऐ जानता है
या फिर किसी आयी ये एस ऑफिसर कीरिश्तेदारी है
मगर ग़ालिब जी तो इन बड़े नामो से वाकिफ नहीं थे।
फिर गर्दन झुकाए ही कहा
बादशाह सलामत से सिफारिश करवा सकता हूँ
आदमी ने पूछा
यह क्या कोई राजनेता हैं?
ग़ालिब चौंके
यह राजनेता कौन होते हैं
क्या कोई मनसबदार या नवाब है?
आदमी ने सोचा
बेचारा किसी को भी नहीं जनता
फ्लैट कैसे लेगा?
फिर पूछा
करते क्या हो
ग़ालिब जी बोले
शायर हूँ, मसनवी है मेरी
ओह तो यह बात है
आदमी ने सोचा बेचारा पूरा ही पागल है
अपने को शायर कहता है और एक फ्लैट के लिए लाइन में खड़ा है
ज़रूर टुच्चा शायर होगा ।
सो बोल पड़े
भाई कुछ काम करो कि दुनिया जाने
यह क्या हर मुस्लमान कि तरह शायरी करते फिरते हो
कुछ ऐसा करो कि काका नगर में सरकारी फ्लैट मिल जायेगा
और साथ में पद्म भूषण भी
मियां ग़ालिब यह तो समझ गए
दुनिया बदल गयी है
अब घोड़े कि जगह मेट्रो से बल्लीमारान जाने की सोच ली .

Wednesday, June 9, 2010

जब कहने को कुछ भी न हो

देखो जरा मुड़ कर
एक रास्ता छूटा है
नुक्कड़ पर, मोड़ कर पैर एक कौव्वा
काफी देर से बैठा है
उड़ता ही नहीं।
सामने एक दूकान में
बैठी एक लड़की फेंकती रही दाना
कव्वे ने खाया नहीं
बस चलता रहा यही सब
देर तक।
कहीं से फिर सुनायी दी
किसी के हंसने की आवाज़
देखा जो मुड़ कर तो कोई नहीं
अभी भी वही लड़की
फ़ेंक रही थी दाना
और अभी भी वह कौव्वा
चुप चाप बैठा
टुकुर टुकुर ताक रहा था।



Tuesday, June 8, 2010

यह हसरतों का लम्बा सिलसिला

दिल भी चाहे कितने रंग
और हर रंग कि अपनी मांग
हर कदम पर लगी है उमीदों कि लम्बी कतार
एक को पूछो तो दूसरा हो हाज़िर
किस किस कि करें फरमाईश पूरी?
ज़िन्दगी है एक लम्बा छोटा सफ़र
काटो तो कटे नहीं, जियो तो बस इंतहा
थाम कर दमन अगर चाहो चलना
तो छूट जाएँ राहें
पतली संकरी पगडंडियों पर
दौड़ते रहे हम जिन पर
आज कदम रखना भी मुश्किल
फिर थामने को किसी का दमन भी तो नहीं।
उफ़ इन लम्बी राहों का सफ़र छोटा होता क्यों नहीं
या फिर यह सुस्त कदम उड़ते क्यों नहीं!




एक दिवास्वप्न यह भी!

दिल्ली में तो कुछ भी सपना हो सकता है
सड़क पर चल कर उस पार जाना
चलती बस के नीचे नहीं आना
पुलिसके हाथों पिट न जाना
या फिर चलती गाडी से अपने मुंह पर पान का पीक न पड़ जाना
धुएं की मार से फेफड़ा जल न जाना
या यूं ही रोटी को तकते आँखों का सूख नहीं जाना
यह दिल्ली है भाई.

Thursday, June 3, 2010

क्या कहना है !

मेरे हर सवाल का वही घिसा पिटा सा जवाब
क्यों हर उलझन का बस फिर वही समाधान
नए हौसलों का कुछ काम नहीं यहाँ
नए फैसलों पर होते रहे हैं ऐतराज यहाँ
मुस्कुराहटों पर लगी है पाबन्दी भी
हाथ के इशारों पर हुए बलवे
बाँहों की हरकत से हुए हैं कई अहम् फैसले
बदलते हैं रंग कई चेहरों के
थाम कर अपना चेहरा
सोचता हूँ अपनी किस्मत पर
क्या कहूं? क्या छुपाऊँ?

Wednesday, May 19, 2010

हे राम!

गाँधी तुम मरे नहीं
किसी गोडसे की गोलियों से नहीं मरे तुम
तुम्हें मारने की योजना तो सदियों से चली आ रही थी
वैसे ही जैसे तुम्हारे आने की उम्मीद में जी रहे थे सदियों से
और फिर तुम आ गए औचक ही
मींच कर आँखें देखा तो वह तुम नहीं थे।
वह तो घुटनों तक धोती पहने, नंगा बदन
लिए हाथ में एक लम्बी सी लाठी
तुम कहाँ चले गए?
अब और कितनी सदियाँ रुकना होगा
कब मिलेगी आज़ादी हमें
कब होंगे हम आज़ाद अपने ही जेल से
बंधे हाथ हमारे
सिले होठ भी
किस तरह पुकारें तुम्हारा नाम
लो अब तो नाम भी भूल रहा है मुझे
ओ लाठी वाले बाबा
कहीं गाँधी को देखो तो मुझे उसका पता बता देना.

Saturday, May 8, 2010

आओ चलें धुप में

ज़िन्दगी जी, तो किस कदर
उम्र बसर की, तो किस तरह
कहने को तो हुए उम्रदार हम भी
मगर सफ़ेद हुए बालों से तजुर्बों का क्या ताल्लुक?
मजहबी बातें हैं, क़ाज़ी जी समझ लेंगे
हम पढ़ पढ़ कर किताबें और भी नादान हुए
तुम्हारी बात कुछ और है
तुम तो ले कर डिग्री आलिम बने बैठे हो।
सुनो समझदारों, अब वक़्त आ गया है
फलसफों को भूलने का
मजहब को घर और दिलों में में रखने का
और निकल कर कच्ची धुप में
बारिश की तलाश में हाथ पसारे घूमने का।

Monday, April 26, 2010

देखो इस तरफ
इतना सारा धुआं है
फिर आग कहाँ छुप गयी
उस आग की गर्मी और रौशनी कहाँ चली गयी
ढूंढता रहा हूँ मैं
तिनकों में दबी आग
सिसकियों में दबीचीख की तरह
मेरे अरमानो की निकली बारात
किस किस को दिखाएँ जख्म अपने
कहाँ ले जाएँ अपनी सोच को
कैसी कैसी राहों से हो कर गुजरे हमारे काफिले
कैसी आँधियों को छोड़ आए हम
फिर भी, ऐसा लगता है
जैसे बादलो की धुंधली परछाइयों में
भूले बिसरे सुने हुए अफसाने
टुकड़ों में गिरते हैं आसमान से
चलो सरहदों के पार
चुन कर लाते हैं रंग बिरंगी तितलियाँ।


Sunday, April 18, 2010

देखो इस तरह भी

मेरे आशियाने के कुछ तिनके उड़ गए हैं
ठहरो जरा में फिर चुन कर लाता हूँ
देखूं तो में किन मौजों में बहे हैं मेरे माजी की कहानियाँ
किस सिम्त गयी हैं मेरी ख्वाबों की दुनिया
सोच कर देखा तो और उलझ गयी बातें
उठा कर उन ख्वाबों के गिरे हुए रेज़े
सोचता रहा देर तक
क्या करूं में इनका
कैसे दिल बहलाऊँ अपना ?
चलो याद करते हैं गुजरे ज़माने के फ़साने
शायद लबों पर भूली सी कोई तबस्सुम
फिर से बहार ले आये
फिर आ जाये हौसला तिनके चुन ने का.

Saturday, April 17, 2010

इस पेड़ की छाँव में

बसे हुई बस्ती में
उजड़े हुए कुछ घर
बीती हुई यादों के सहारे जीते कुछ लोग
अपने आप से करते बेमानी से सवाल
इन्ही कुछ घरों में
छिपी कुछ कहानियाँ
मेरे किसा गोई का कोई क्या करे।

Tuesday, March 9, 2010

कैसी कविता

मन में एक डर
ऊऊऊ ऊऊऊउ ऊऊऊऊऊ
बोलता सियार
चुप अँधेरी रात
कोई बोलता नाहीं
कुछ हिलता नहीं
बस चलती है हवा
इस बयार में बसी नयी जवानी की खुशबू
या फिर हसरतों का क़त्ल होता देखूं।


Monday, March 8, 2010

नीला रंग है सब

ऊँचे ऊँचे मकानों में
रहने वाले लोग कैसे नीले नीले लगते हैं
उन ऊँचाइयों पर हवा कम होती होगी शायद
और नीचे चलते लोग कैसे बौने से दीखते होंगे
अपनी कद फिर और भी लम्बी लगती होगी।
यही सब सोचता
टकरा गया मैं
सड़क पर चलते दुसरे आदमी से
पता भी नहीं चला
कब जेब कट गयी मेरी।

Sunday, March 7, 2010

स्वाद

मेरी ज़बान पर रखे
नमक का कोई स्वाद ही नहीं
इतना पीया आंसू कि अब
नमकीन स्वाद ही मिट गया लगता है।

Saturday, March 6, 2010

फिर वही धुंधला सा एहसास

एक आदमी ने पूछा

इस सड़क कि मौत कब हुई

औचक चाय वाले ने अपनी नाड़ी टटोली

फल वाले ने भी निकालकर अपनी ज़बान दिखाया रिक्शेवाले को

रिक्शेवाले ने बजा कर घंटी किया आश्वश्त स्वयं को।

तभी उड़ता तिनका पडा आँख में

लाल आँखों से घूरता देर तक

देखा खड़े लोगों को

ली लम्बी सांस

और फिर हिला कर दम

अपने मालिक कि लम्बी चेन को खींचता

भूंकता हुंकारता

जीवन से हो प्रसन्न

चला गया।


Saturday, February 27, 2010

किसने कहा?

कल शाम जब ढल रही थी
उस दिन जब सूरज निकल रहा था
एक दिन और जब बारिश की फुहारों ने गीले कर दिए थे मेरे सपने
और फिर वह दिन जब इन्द्रधनुष की कमान पर चढ़ कर
विलुप्त हुए तुम मेरी दृष्टि ओर दिल से
किसने कहा था
समाप्त हुआ एक युग
किसने कहा था प्रेम कि हुई मौत।
तब से आज तक मैं तुम्हारे छुअन को आत्मसात किये हूँ
हर पल
हर डगर पर
तुम्हारा साथ सजाये नयनों में
किसने कहा था वह एहसास के धरातल पर का प्यार
मैं तो आज भी छू पा रहा हूँ
उँगलियों के पोरों से टपकते लाल रक्त की मानिंद।

Thursday, February 25, 2010

गरीबी हटाओ..

अमीरों देखो तुम्हारी गाडी के नीचे
काली रेंगती सड़क कुम्हला रही है
तुम्हारे बेरहम चक्कों ने पिस दिए हैं उसकी आत्मा
रो रो कर कह रहा है सड़क के किनारे खड़ा यह बूढा पेड़।
यह नीम है या जामुन
क्या फर्क पड़ता है
नीम हो तो लोग तोड़ लेंगे टहनियां दातुन बनाने को
गर हो jamun तो लोग करेंगे इंतज़ार उस मौसम का जब फल आएंगे
कडवापन भी बचा नहीं पाता नीम को।
सोचती रही बूढ़ी हो गयी सड़क
क्यों यह ped कहीं और नहीं जाता
क्यों किसी बदनुमे दाग कि तरह मेरी किस्मत par विराजमान रहता है
पेड़ भी सोचता रहा
कितना भला था
जब यह सड़क नहीं थी तो कितनी हरियाली थी
कितने खुश थे लोग बाग़
अब तो चलन ही बिगड़ गया है
लोगों में शर्म बाकी ही नहीं रही
बस एक मैं था जो सोचता रहा
क्या करू इस सड़क का
मुझे तो इस पेड़ कि तरह यहीं उम्र नहीं गुजारनी है
एक लंबा सफ़र है
और मैं थक रहा हूँ.


Monday, February 22, 2010

चुप भी रहो!

समुद्र पर खड़ा

मैं अपने हाथों में लिए पहाड़ी बर्फ

बेस्वाद जिव्हा से

खा रहा था मूंगफली

यह सोचता हुआ कि यह भी कैसा दाना है

जिसका तो नाम ही नहीं बचेगा

छिलके तोड़ हम बीज भी तो खा जाते हैं।

गरज कर समुद्र ने कहा

चुप भी रहो

मैं तो अपनी ही आवाज़ से परेशान हूँ

अब यह

मूंगफली तोड़ने कि आवाज़

है कि कान फाड़े डालती है।

Friday, February 19, 2010

किसकी किस्मत है यह

जब रास्ते छूट गए उजालों में
मैंने अंधेरों में खोजे हैं रंगों के मानी
लोग कहते हैं कि है यह किस्मत मेरी
मैंने अपनी लकीरों में तलाशे हैं कुछ अनजान से चेहरे
देख कर बताओ तो इनमे कोई शक्ल तुम्हारी तो नहीं?

Sunday, February 14, 2010

हद हो गयी

इस पड़ाव से उस मंजिल तक
रास्तों में लगे पेंच
हाथों के घाव
पैरों में कैसे चले गए
आँखों की नमी तुम्हें कैसे छू गयी
मुहब्बत भी क्या रंग दिखाती है
कहाँ से यह काफिला सजाती है
और मैं हूँ कि विस्मृत
जैसे
भूला हुआ कोई पथिक।
हद है!

Friday, February 12, 2010

मेरी कहानी

पीले हाथों पर मेहदी के रंग
सरसों के खेत में उगे बरगद
आसमान फट कर बात गया टुकड़ों में
जैसे मेरी कहानी
मुझसे से चलकर
तुम तक पहुँचने में
बाँट कई चिथरों में.

छोटी कविता

दो पंक्तियाँ
कई शब्द
कुछ मानी
आप समझे व्यंग्य
और मैं बहुत रोया सुन कर उसकी एक छोटी सी कविता।

Sunday, February 7, 2010

ऐ लड़की

ऐ लड़की सुनो ज़रा
तुम्हारे हाथों कि लकीरें तो देखूं मैं
यह लकीरें क्यों बनती हैं हमारे हाथों में
सालों से ढोते बोझ इनमे छले पड़ जाते हैं
सूख कर घाव अपने निशाँ छोड़ जाते हैं
और तुम इन्हें लकीरें कह देते हो !

Thursday, February 4, 2010

इब्न बत्तुता

क्या हंगामा है यह
क्या हुआ है इब्न बत्तुते के जूते को
क्यों हैं लोग परेशान इस भूले हुए यात्री पर
क्या हुआ अगर है कोई
किसी कि कविता से प्रभावित
क्या अनुभव पर
मिलकियत है किसी की
क्या अब सोचने पर भी लगेंगी पाबंदियां?
भाई बत्तुता
तुमने तो पूरी ज़िन्ज्दगी जी
और अब ज़बान पर भी चढ़े हो,
क्या बात है!

Tuesday, January 26, 2010

बस इतनी मुश्किल है

तुम न आये
बारिश ना थमी
बढ़ता रहा सैलाब भी
चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा
बस आँखों में रौशनी
दिल में उमंग
सांसों की आस
बस इतनी मुश्किल है।

Sunday, January 24, 2010

सपने

मैंने भी सात रंग के सपने देखने चाहे थे
मगर आँख थी कि सोयी नहीं
रंग थे कि दिखे दिखने नहीं
हाथ थे कि हिले नहीं
ख्वाब सब काले से।
उठ कर बैठ गया मैं
लग कर हाथ गिर गयी
पास रखी गर्म चाय भी.

Sunday, January 17, 2010

चील का सपना

एक चील सोया हुआ
खुली आँखें ही
देखता रहा एक सपना
चारों तरफ मरे हुए जीव जंतु
अचानक ही उसकी भूख कम हो गयी और
उसके होटों पर एक खतरनाक सी मुस्कराहट लौट आई।
बड़े चैन से सोया फिर वह।

Saturday, January 16, 2010

चोंच बराबर दूध

एक बच्चा रोया बहुत
लगी हो भूख शायद
सोच कर एक छोटी सी चिड़िया
भर लायी चोंच में दूध
सुनी यह बात जब चींटी ने
तो वह बच्चे के होटों के पास जम गयी।

Wednesday, January 13, 2010

तुम पुकारो मेरा नाम

दूर जहाँ तुम जहाँ हो
उन्ही दूरियों से
छू कर मेरे अरमान,
सहला कर मेरे दर्द,
मेरे सोये ख्वाबों को ना छेड़ो।
अगर कर सकते हो तो पुकारो मेरा नाम
क्या पता कहीं लुप्त मेरी खुशियाँ
खोजने निकल पड़े मुझे!

Tuesday, January 12, 2010

यूँ ही

एक पल
बस यूँ ही
ऐसा लगा
तुम पास हो कहीं
छु कर देखा तो
हरी घास पर नर्म ओस की बूँदें थी
तुम्हारा कही पता नहीं।
देखा उठा कर नज़रें
तो काला आकाश
और भी काले बदल
हाथ को हाथ नहीं दिखाई देता
सोचा शायद इसी लिए तुम दिखाई नहीं देती।
ली एक लम्बी सांस.

Sunday, January 10, 2010

जो भी बाकी था

हमने कही
हर वह बात जो कहनी थी
तुमने हर बात पर पर्दा किया
हर एक बात जो हम पर बाकी था
हर एक सांस जो हम पर उधार था
हर एक ख्याल जो बसी सी रोटी कि तरह
उतरती नहीं गले के नीचे
मैं तुम्हारी राह देखता हूँ.

Saturday, January 9, 2010

हंस कर पूछा चुप्पी ने
क्या नाम है तुम्हारा
क्या कहती ख़ामोशी भी
झुका कर सर
मसल कर उँगलियों को
तकती रही आसमान
यही तो फितरत थी उसकी.

Monday, January 4, 2010

कल शाम से

एक बात करनी थी तुमसे
कुछ नए पुराने घाव जो भरे नहीं हैं अभी तक
कुछ पल जो अभी तक काटते हैं मुझे
बोलो तो कोई जवाब है तुम्हारे पास ?
शरद ऋतू में यह सीधी धुप का सा एहसास
सोचो तो
यह नयापन कहाँ से आया है
कल शाम से मैं यह सोच रहा हूँ
मगर जवाब है कि
सर्दी की सुबह का फायदा उठा कर
कही छुप गया है।
यही नियति है सवालों का।

Saturday, January 2, 2010

एक नयी प्यास

देखा जो टूटे हुए शीशे
मैं सोचता रहा
कैसे हुआ होगा उसे एहसास
टुकड़ों में बंटने का।
फिर पूछा मैंने
टूटे हुए टुकड़ों से
कैसा लगता है यूँ टुकड़ों में टूट कर?
एक टुकड़ा थोडा उदास सा
बोला
बस ज़रा प्यास का एहसास अधिक होता है
मैं कुछ समझ नहीं पाया।