Tuesday, January 26, 2010

बस इतनी मुश्किल है

तुम न आये
बारिश ना थमी
बढ़ता रहा सैलाब भी
चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा
बस आँखों में रौशनी
दिल में उमंग
सांसों की आस
बस इतनी मुश्किल है।

Sunday, January 24, 2010

सपने

मैंने भी सात रंग के सपने देखने चाहे थे
मगर आँख थी कि सोयी नहीं
रंग थे कि दिखे दिखने नहीं
हाथ थे कि हिले नहीं
ख्वाब सब काले से।
उठ कर बैठ गया मैं
लग कर हाथ गिर गयी
पास रखी गर्म चाय भी.

Sunday, January 17, 2010

चील का सपना

एक चील सोया हुआ
खुली आँखें ही
देखता रहा एक सपना
चारों तरफ मरे हुए जीव जंतु
अचानक ही उसकी भूख कम हो गयी और
उसके होटों पर एक खतरनाक सी मुस्कराहट लौट आई।
बड़े चैन से सोया फिर वह।

Saturday, January 16, 2010

चोंच बराबर दूध

एक बच्चा रोया बहुत
लगी हो भूख शायद
सोच कर एक छोटी सी चिड़िया
भर लायी चोंच में दूध
सुनी यह बात जब चींटी ने
तो वह बच्चे के होटों के पास जम गयी।

Wednesday, January 13, 2010

तुम पुकारो मेरा नाम

दूर जहाँ तुम जहाँ हो
उन्ही दूरियों से
छू कर मेरे अरमान,
सहला कर मेरे दर्द,
मेरे सोये ख्वाबों को ना छेड़ो।
अगर कर सकते हो तो पुकारो मेरा नाम
क्या पता कहीं लुप्त मेरी खुशियाँ
खोजने निकल पड़े मुझे!

Tuesday, January 12, 2010

यूँ ही

एक पल
बस यूँ ही
ऐसा लगा
तुम पास हो कहीं
छु कर देखा तो
हरी घास पर नर्म ओस की बूँदें थी
तुम्हारा कही पता नहीं।
देखा उठा कर नज़रें
तो काला आकाश
और भी काले बदल
हाथ को हाथ नहीं दिखाई देता
सोचा शायद इसी लिए तुम दिखाई नहीं देती।
ली एक लम्बी सांस.

Sunday, January 10, 2010

जो भी बाकी था

हमने कही
हर वह बात जो कहनी थी
तुमने हर बात पर पर्दा किया
हर एक बात जो हम पर बाकी था
हर एक सांस जो हम पर उधार था
हर एक ख्याल जो बसी सी रोटी कि तरह
उतरती नहीं गले के नीचे
मैं तुम्हारी राह देखता हूँ.

Saturday, January 9, 2010

हंस कर पूछा चुप्पी ने
क्या नाम है तुम्हारा
क्या कहती ख़ामोशी भी
झुका कर सर
मसल कर उँगलियों को
तकती रही आसमान
यही तो फितरत थी उसकी.

Monday, January 4, 2010

कल शाम से

एक बात करनी थी तुमसे
कुछ नए पुराने घाव जो भरे नहीं हैं अभी तक
कुछ पल जो अभी तक काटते हैं मुझे
बोलो तो कोई जवाब है तुम्हारे पास ?
शरद ऋतू में यह सीधी धुप का सा एहसास
सोचो तो
यह नयापन कहाँ से आया है
कल शाम से मैं यह सोच रहा हूँ
मगर जवाब है कि
सर्दी की सुबह का फायदा उठा कर
कही छुप गया है।
यही नियति है सवालों का।

Saturday, January 2, 2010

एक नयी प्यास

देखा जो टूटे हुए शीशे
मैं सोचता रहा
कैसे हुआ होगा उसे एहसास
टुकड़ों में बंटने का।
फिर पूछा मैंने
टूटे हुए टुकड़ों से
कैसा लगता है यूँ टुकड़ों में टूट कर?
एक टुकड़ा थोडा उदास सा
बोला
बस ज़रा प्यास का एहसास अधिक होता है
मैं कुछ समझ नहीं पाया।