Thursday, April 30, 2009

इस सेहरा में

क्या हद है इस रेत के समुन्दर का
जहाँ तक जाती है निगाह
बस रेत ही रेत है
कुछ अलसाये से
ऊबे हुए ऊँट
और कुछ प्यासे से उनके सवार
सब के सब बिल्कुल निस्पृह
जैसे कुछ हो ही नहीं रहा हो।
और शयद कुछ हो भी नहीं रहा था
बस मैं था कि
पानी कि आस में
प्यास को बुझाये जा रहा था
और मेरी सजग आंखों में
उदासी तो थी
मगर थे कुछ पुराने से ख्वाब
जिनके सहारे मैंने जवानी के कुछ दिन बिताये थे
और जो आज भी मेरे लबों पर मुस्कान ला देते हैं।
अब ऊँट बड़ा दीखने लगा है
अब वह पानी कि तलाश में नहीं लगता है
उसे अब गंतव्य तक रास्ता दीखता है
सहसा वह मुझे ऊँट की जगह सिपाही लगने लगा है
सीधा
सचेत
अपने गंतव्य के प्रति उत्सुक
निश्चय ही मैं मृग मरीचिका में हूँ
अपनी आँखें बंद कर मैं
अपने प्यास सिक्त होठों पर फेर कर जिव्हा
सोने का प्रयास करता हूँ
क्या सफल हो पाऊंगा मैं?

Wednesday, April 29, 2009

मैं क्या था !

कहाँ से चल कर यह मैं कहाँ गया हूँ
इन बर्फीली हवाओं का क्या करुँ
मेरे होने को सर्द कर रही हैं
उठ रही है मेरे वजूद पर शंकाएँ
मेरे ज़मीर पर उठता हुआ गुबार
मेरी सोच को धुंधला कर देती है।
मेरी फ़िक्र अब यह नहीं कि क्यूँ
मेरी जिस्म में जुम्बिश नही होती
क्यूँ मेरी पलकें अब धुप में नही झपकती।
मेरा तो एक एकाकी सा एहसास
एक गरमाई हुई दुपहरी को
गर्म तपते सड़क पर जैसे दौड़ता हुआ
हांफता सांसे लेता
मैं
एक एकाकी
ग्रहण लगे चाँद सा
बुझे हुए दीप में गुम
इन्ही बर्फ सी ठंडी सोचों में
बस अपने अकेलेपन का गर्म एहसास
अपने हाथो में होती धड़कन
जिंदा होने का आभास दिलाती है
वरना यह भी कोई ज़िन्दगी है यारों !

ए बुढिया!

क्यूँ कोई तुम्हे बुढिया कहता है
तुम्हारे चेहरे से तुम्हारे उम्र क्या तालुक
क्यूँ कोई तुम्हे तुम्हारे काम से नही
बल्कि तुम्हारे चेहरे पर पड़ी झुर्रियों से देखता है?
क्यों तुम्हे कोई गिराना चाहता है
क्या है तुम्हारे में कि कोई डरता है तुम से
मगर फिर सोचता हूँ
हम रंग और उम्र से आतंकित
पीढी डर पीढी
इन्ही बेवजह के सवालों से जूझते रहे हैं
और उत्तर फिर हर बार वही होता है
एक लंबी सी बेमानी चुप्पी।

Sunday, April 26, 2009

एक सच.

अपने आप का एक सच
मैंने हाल ही में पहचाना है
मेरे सिवा इसे कोई जानता नहीं
वैसे भी यह एक गोपनीय सच है
वैसे ही जैसे सभी सरकारी फाइलों पर अंकित होता है अति गोपनीय
मेरा यह सच भी कुछ ऐसा ही हो गया है।
मेरे हज़ार चाहने पर भी
यह सर्व विदित है
मगर फिर भी मेरे लिए ही सही
यह एक राज़ है।
चलिए आप को बता देता हूँ
क्यूँ आप उत्सुकता से हों अधीर
मैंने अपना शक्ल देखा आईने में
और डर गया था
मुझे लगा ज्यों मैंने
देख इया हो कोई अजनबी
फिर उस रात और उसके बाद कितनी रातें मैं सो नहीं पाया
मेरा अपना वजूद मुझे छोड़ गया है
मेरी अपनी पहचान खो गई है
मैं मेले में गुम किस बच्चे सा रोता
अपनों को भरी आंखों से खोजता
कोई तो बताये
कोई तो दिखाए
मेरी पहचान का पता।
यही एक सच
यही एक असत्य
आप चाहे जिसे मान ले
मुझे बहलाने को
सब चलेगा।







Thursday, April 23, 2009

संभावनाओं की आहट!

कौन है वहां
मेरे अस्तित्व की परछाईयों में
मेरे अतीत को तलाशता
जैसे ले आया हो कोर्ट का वॉरंट
ले रहा हो जैसे करती है तलाशी पुलिस।
मेरे जहन में आया है
पूरब की ठंडी बयार सी
मेरा वर्त्तमान
कहाँ है मेरा अतीत
मुझे जहाँ तक याद है
वह पिछली बारिश में गीला हो गया था
फिर पोंछ कर हाथो से मैं
उसे लपेट कर पुराने अख़बार में
भूल हया था मैं इतने बरसों से।
तो क्यों मैं इस कदर परेशां हूँ?
क्यूँ मुझे कुछ होने का आभास सा हो रहा है?
क्यूँ लग रहा है जैसे एक अभिसारिका सी
उस कोने में कुछ खोज रही है? क्या हो सकती है वह चीज़?
मेरी खोई हुई कोई कहानी
या फिर तुम सी अप्रतिम कोई कविता
क्या जानू मैं ?

Tuesday, April 14, 2009

आग का दरिया

मेरी सोच का वास्ता ना दो
मेरी हसरतों को न कुरेदो
मेरे ख्वाब अब बुत बन कर सदियों के लिए सो गए हैं
मुझे प्यास भी अब नही लगती
मेरी मुफलिसी मेरे ईमान को हिलाती है
मेरे अरमान अब बहुत ऊपर विचरते हैं
मैं अपने आप में नहीं हूँ
या कहें की मैं तो कभी भी मैं था ही नहीं
मेरे आप में मेरा कुछ आसमान और कुछ थोडी सी ज़मीन सम्मिलित है
और मैं यही सोचता हूँ
कि मेरा क्या है
कौन हूँ मैं
क्या है मेरा व्यक्तित्व
क्या है मेरी पहचान
लगती है मुझे यह सब
जैसे आग का दरिया है
जिसके साहिल पर बैठा मैं
रूमानी कविता लिखना चाह रहा हूँ
मगर लफ्ज़ हैं की पिघलते जा रहे हैं
मेरी सोच बर्फ होती जा रही है
और मेरा स्वत्व कहीं खो गया है।
जरा ले तो आओ एक नाव
जो पार करा दे मुझे इस दरिया के
बिना जले, बिना जलाए।

Monday, April 13, 2009

सीता : अगर तुम कलयुग में जन्मी होती !

सीता तुम थी तो अग्यात्कुल्शिला ही ना
मगर फिर भी जनक ने पाला तुम्हे
और तुम्हे राम जैसा पति भी मिला
तुम सी प्रिथ्विपुत्री जब अयोध्या गई होगी
तब कैकेयी या मन्थरा ने क्या खरी खोटी नही सुनाई होगी ?
क्या कौशल्या के मन में तुम्हारी शुद्धता पर शंका के स्वर न उठे होंगे?
क्या दशरथ ने तुम्हारे जन्म से सम्बंधित प्रश्न न किए होंगे?
जिस अयोध्या के धोभी ने रावण के पाश से मुक्त होने पर भी तुम पर लांछन लगाया था
क्या वही अयोध्या तुम्हारे आने के समय भी शशंकित नही थी?
हर युग में
आज भी
हे सीता
तुम शशंकित और तिरिस्क्रित हो
और पुरूष तुम्हारे भाग्य का बन विधाता
विद्रूप से है मुस्कुराता
अफ़सोस उस युग में भी राम ने भी महज शक पर त्याग दिया था
आज भी तुम कलंकित और बंदिनी हो
चाहे गीतांजलि नागपाल हो या अमृता सिंह या रेनू दत्ता
तुम हो बस परित्यक्ता
इस पुरूष बहुल समाज में बस एक काम की चीज़ हो
आदमी का प्यार तो पा सकती हो
उसका सम्मान नहीं
आदमी वैसे ख़ुद को भी नहीं पहचान पता है
तो तुम क्या हो
वह तो बस रिश्ते तलाशता रहता है
और मिलता है उसे सिर्फ़ एक के बाद एक --शरीर.

Sunday, April 12, 2009

ए मेरे दोस्त

ए मेरे दोस्त
कैसे बताऊँ मैं तुम्हे
की कैसे कैसे राहों से गुज़र कर
मैं तुम्हारे पास आया हूँ
क्यूँ मैं चुनता रहा हूँ दिवाली की जली फुलझरियां
क्यूँ मैंने होली के गुलाल अब तक बचा कर रखा है
क्यूँ मेरी हथेलियों में अब भी है तुम्हारे दमन पर लगे खुशरंग हिना की प्यारी सी खुशबू
इतने सारे सवाल, इतने सारे जवाबों को मुन्तजिर
मेरे माजी से झांक झांक कर
मेरे आज को प्रणाम कर रहे हैं।
मेरे दोस्त आओ गले लग जाओ
क्या हुआ अगर आज हम अजनबी हैं
क्या हुआ अगर आज तुम किस्सी और जैसे लगते हो
और मैं उसी मोड़ पर
वहीँ खड़ा हूँ
ताकता हुआ राहें
जैसे कोई टूटी सी एम्बेसडर कार
सालों से किसी चालक के इंतज़ार में
बस अपने उडे हुए रंगों के साथ
करता है अनवरत इंतज़ार।

Thursday, April 2, 2009

suraj ki dhoop ka swad

जब कोई मुझसे तोड़ता है नाता न जाने क्यूँ
मैं सोचता हूँ
जैसे अब बहेगी पुरवाई
अब चलेगी ठंडी बयार
मेरे मन के प्रांगन में खिल उठेंगे फूल
और मैं मोर सा देख काले बदल नाच नाच पड़ता हूँ.
यह हवा में रचा बसा अवसाद
मेरे मुह में ज़हर का सा स्वाद
मेरे लिए लाये हो जो फूल
लाओ मैं तुम्हारे बालों में लगा दूं
महक जाएँगी जुल्फें तुम्हारी
बस जायेगी तन मन में चन्दन की खुशबू.
अच्छा एक बात पूछूं
क्या तुमने कभी छो कर देखी है
छितिज पर फैल गयी लालिमा को
क्या कभी लिया है बाँहों में
अलसाई सी धुप को
मैंने चखा है
बरसात की पहली बूँद को
ले करे हाथों में
फिर सूंघ कर हरी सी शाम की बोझिल सी मुस्कराहट को
फिर फैल गया मैं
अपने सपनो की रेत पर
लगा कर सर तुम्हारे तस्सव्वुर पर
देखो मेरे सांसो में कैसे तुम्हारी खुसबू समा गयी है
और मैं बस तुम सा बन गया हूँ.