Saturday, October 30, 2010

मैं लिखता हूँ इस लिए..

बैठा समुद्र के किनारे
सोचता रहा देर तक
क्यों लिखता हूँ मैं
क्या लिखता हूँ मैं
कौन पढता है मुझे
कितना बेमानी है यह लिखना-पढना
सच बस एक है
वही जो हम भोगते हैं
वही जो हम सोचते हैं
जीवन को जीने का अंतर्द्वंद
मुझे स्मरण कराता अहर्निश।
अपने आप को करता विस्मृत
थामे कलम को
करता रहा काले सफ़ेद पन्ने
इन पृष्ठों का क्या कोई अपना भी
फ़साना होगा क्या?
यही सोचते कट गया एक और सफ़र
अनंत सा सफ़र
और अनादी इच्छाएं
एक साधारण सा मनुष्य
मगर असाधारण इच्छा
कि बनूं एक अच्छा इंसान
मगर लगता है
है कितना कठिन यह भी
जैसे मिठाई का मीठे के सिवा कुछ भी होना
कितना असार्थक होता
वैसे ही
मेरा मनुष्य होना कितना साधारण
मनुष्य होने कि चाह कितना असाधारण!



Wednesday, October 27, 2010

किसने कहा कि में हूँ !

एक आवाज़ उठी है पूरब से
कुछ दिखा है मुझे हर तरफ
सोचने को जब नहीं हो कुछ भी बाकी
ज़िन्दगी अपने आप में कितनी अधूरी
बस बिलकुल मेरी कहानी की तरह।
मेरे अफ्सानो का तर्जुमान कोई करे तो क्या करे
हर्फ़ मिटे जाते हैं
मानी है कि मिलती नहीं
लफ़्ज़ों की हकीक़त अब क्या बताऊँ
मैं खुद से हैरान हूँ।
तुम सुनो तो कहूं
एक दम से एक रक्कासा जैसे नाच उठे
मेरे पाँव में हुई थिरकन
मेरे ख्यालों में हरकत
मेरे बाँहों में उठ रही कशमकश
मैं तो ज्यों मिट चला हूँ
मैं जैसे हूँ ही नहीं
तुम हो जैसे सब तरफ
न जाने यह क्या हो रहा है मुझे!

Thursday, October 7, 2010

एक दिन ऐसा भी हुआ था

टूटे आसमान का एक टुकड़ा लिए हाथ में
एक प्रयास टुकड़े को थामने का
हो गया पूरा शरीर नीला
पीला हो रहा चेहरा
मगर क्या हो गया आसमान के नीलेपन को
एक टुकड़ा ही तो लिया है
क्यों पूरा रंग चला गया
लगा सोचने रख कर सर हाथों में।
इतने में बदल गया रंग
मेरे चेहरे का
उड़ता रहा धुल जैसा गुबार
चुभता रहा आँखों में देर तक
लिए रुमाल हाथों में
अपनी फूंक से गरम कर, सेंकता रहा
तब उठा कर नज़र देखा तो
उफ़ यह क्या!
आसमान का रंग तो लाल हो गया था।

Wednesday, October 6, 2010

सनसनाती ख़ामोशी

क्यूँ सब हैं इतने खामोश
किस बात पर हैं सब हैरान
जब सोचने को नहीं हो कुछ बाकी
तो क्या देखेंगी आँखें।
अब जब कि में थक सा गया हूँ
मुझसे लम्बी दौड़ क़ी उम्मीद कैसी
कैसे करते हैं मेरी पहचान से गुफ्तगू
और में हूँ कि अकेला
अपने आप में सिमटा
बिलकुल खामोश
सुनता रहा
आने गिर्द फैली
सनसनाती हुई ख़ामोशी
जैसे कोई खेलाता है
गोद में एक छोटा सा बच्चा।

Sunday, October 3, 2010

देखो यही सच है

मेरे क़दमों को देखते चलो
उस राह का आगाज़ देती है
जिस पर और भी चले थे
मगर उन्हें अब याद नहीं
अगर इस राह का कोई होता अपना वजूद
तो समझ लो
वह भी
मेरी ही तरह मुझ से कतरा कर चलता और
मैं
अपनी याद का डब्बा लिए
चल दिया उस दिशा में
जहाँ दिखा था धुआं उस दिन।