Sunday, November 14, 2010

देखो तो यह अंगड़ाई

सुबह होने को है और नींद है कि थमती ही नहीं
रात है की दामन छुड़ाती ही नहीं
फ़िक्र है मुझे तो सिर्फ इस बात का यारों
यह कौन सा मलाल है जो दिल के खानों से जाती ही नहीं।
इस बात का गुरूर है की मुझे जानता है कोई
एक बार मिला तो पूछा मेरा नाम
देखो तो माजी से झाँक कर पुकारता है कोई
देखो तो यह अंगड़ाई, जान मेरी छोड़ेगी ही नहीं।
मैं नहीं वह कोई और होगा तुम्हारे याद में रोने वाला
मैं नहीं कोई और होगा उस बियाबान में राहें खोजने वाला
मैं तो तुम्हारी याद में रहा होश में हमेशा
तभी तो तुम्हारी याद है कि रोने ही देती ही नहीं।

Saturday, November 13, 2010

ख्याल

ऐसे में आता है एक ख्याल बार बार
क्यों मिले थे हम, क्यूँ हुए अब तार तार।
मिलने की ख़ुशी थी न अब है जुदाई का ग़म
मेरे हसीं यार हम कैसे हुए इतने बेज़ार।
किसी और ज़मीन पर, गैरों से करो प्यार
यह कैसा इम्तिहान है, यह किस तरह का मलाल।
ज़ाहिर न करो मुहब्बत तो इज़हार -ए-शिकायात तो करो
मेरे नसीबे यार, कुछ तो करो इकरार।
मैं चला जाऊँगा मगर इतना तो बताओ
किस सिम्त गयी खुशियाँ, कहाँ गया सारे जहाँ का प्यार?

Tuesday, November 9, 2010

क्या सुनाऊँ मैं

आज चुप हूँ मैं
जो चाहता था कहना
वही बात मुझ पर बाकी है
हर किसी को सुनना अपनी कहानी
इतना आसान भी तो नहीं।
सोचा तो था कि थाम कर हाथ किसी का
कहेंगे बात दिल कि
मगर कुछ कहता
उस से पहले ही वह शर्मा गया।
बीत गया इतना वक्त और हमने कुछ कहा ही नहीं
बस बैठ कर गुल मोहर के नीचे
चुनते रहे रंगीन फूल
भर भर अंजुली।


Monday, November 8, 2010

एक बात कहनी है मुझे

मेरा सन्देश
अनसुना गया
इस लिए तुम्हारी दस्तक
मैंने सुना ही नहीं।
हिसाब बराबर।

मेरी कहानी

सुनी मैंने
अपनी कहानी
उसकी ज़बानी
आधी सच्ची
आधी बेमानी।
अजीब सी थिरकन
उड़ता है मन
लो पकड़ लो
धागा इस पतंग का
तुम्हारे हाथों
कितना महफूज़ मैं।
ऊपर आकाश में
देखता नीचे
कितनी छोटी लगती तुम
कितना हल्का लगता मैं
विस्मृत मैं
ताकता ही रहा
और हल्का होता गया मैं.

Friday, November 5, 2010

ऐ रंगरेज़ सुनो

मेरा एक यथार्थ तो यह भी है
कि मैं भी बदल कर रंग रूप
देखना चाहता हूँ ऊपर तक उड़ते पक्षियों को
जो बनाते हैं एक तारतम्य।
पीली रौशनी में
जो कुछ देखा मैंने
छू कर जो भी किया महसूस
उसी सोच का
उसी के बहाने
पीली सड़कों पर
चलता हुआ
पहुंचा गंतव्य तक।
लेकिन वहां तो बादलों के नीचे बना एक
तिनकों का घोंसला
दिया उसको एक नाम
बताना क्या?

एक सफा पीला सा

तुम्हारे हाथ का लिखा हर अलफ़ाज़
अब भी ज्यों जाड़े में लगे घाव की तरह कितना नया लगता है
छू कर देखा तो हर हर्फ़ में चुभन महसूस होती है
ठन्डे पड़े हाथ को राख से क्या?
ज़ेहन में आया एक ख्याल
पेशानी पर उग आया पसीना
मुंह में खट्टा सा स्वाद
हाथों में एक नयी जुम्बिश
तुम्हारे बिस्तर के नीचे रखे
उन पीले पड़ गए कागजों पर
लिखी क्या दास्ताँ
किसकी कहानी
किसकी ज़बानी
किसको सुनाना है
कहाँ से शुरू
कहाँ तक जाना है
इतने सारे सवालों का
कोई जवाब होगा क्या?

Tuesday, November 2, 2010

नयी ग़ज़ल

उस बात का न करो ज़िक्र, दर्द यहाँ होता है
तुहारी हकीकतें और मेरा सच, सब बयान होता है।
कल देर रात गए तुमने पूछा था क्या बात है
मैं कैसे बताऊँ कि हर सच के पीछे एक और सच छुपा होता है।
तुम्हारे राज तो दफन कर लिए सीने में मैंने मगर,
अपने दर्द को छुपाने में कुछ और ही मज़ा होता है।
हर शख्स के सीने में एक तूफ़ान देख रहा हूँ मैं
चलो किसी टीले कि ओट में आशियाँ तलाशते हैं।

क्या बात?

उसने कहा
क्या बात
मैंने सोचा क्या हुई बात
क्यों मैं समझ नहीं पाया
कि क्या हुई बात?
क्यों होता रहा उसी फ़साने का ज़िक्र
वही जो कभी हुई नहीं
वही जो कभी होती नहीं
वही सच क्यों लगता है?
रुई के फाहे सा
सर्दी में गर्म चादर सी
तुम आये
और आया तुम्हारा ख्याल
क्या यह भी ख्वाब ही है?