Tuesday, May 31, 2011

कलम या तलवार ?

उसने पूछा
कौन बड़ी 
कलम या तलवार 
बहुत सोचा 
जंग लगी  तलवार 
या फिर
बिना सियाही की कलम?

छोटी कविता

एक बीमार 
एक अनार 
हिसाब बराबर.

धब्बे

 हाथों पर लगे रक्त के धब्बे
मुंह पर पुती सियाही 
हौसला है पस्त
किस बात से करे हम 
किस्मत  से मुंहजोरी.
हर एक दिशा में 
हर एक कहानी में
उन धब्बों की दिखी है छवि
मैं स्तब्ध, अशांत, मूक. 
एक अभिसारिका सी 
विस्मृत पलों की देती गवाही
मैं चुप चाप
मल कर अपने हाथों को
जिन्न पैदा करने की कोशिश करता रहा.
धब्बे अब नहीं दिख रहे.



एक कहानी यह भी है

सुनो जी, एक कहानी यह भी है
न हादसा है, न धमाका है, मगर कहानी तो फिर भी है.
न राजा   है, न रानी है,
न तिलिस्म है, न कोई जादू है.
मगर कहानी तो फिर भी है.
न कोई महा पुरुष है, न कोई बड़ी घटना है,
न सत्य के लिए लड़ी महाभारत जैसी कोई लड़ाई है
मगर कहानी तो फिर भी है.
न गाने हैं, न ड्रामा है,
न हीरो है न मटकने वाली हीरोइने  है
मगर कहानी तो फिर भी है.
एक इमानदार, अनाम, बेशक्ल सी ज़िन्दगी 
एक इमानदार तरीके से जी हुई ज़िन्दगी.
इसे भी जीना मानेंगे आप?
न लिखी हो किसी ने मेरी जीवनी
मगर ज़िन्दगी तो मैंने भी जिया है.

Sunday, May 15, 2011

अफ़सोस है !

एक इंसान के जीते जी मरने का अफ़सोस है मुझे
मगर उस से भी ज्यादा यह की मैं कुछ कर नहीं पाया
बस बैठ कर उसके पास थम कर उसका हाथ
देता रहा दिलासा
वह फिर भी चुकता रहा
घडी घडी
घटता ही रहा
कतरा कतरा फिसलता रहा
रेत की मानिंद मेरी हाथों से 
और मैं?
मौन 
ताकता रहा
अपनी हथेलियों को
जहाँ रेत था तो
मगर धब्बों में.


Wednesday, May 11, 2011

विस्मृत और ....

मेरी दृष्टि पटल पर एक धुंधला सा चेहरा
किसका था
याद नहीं 
सोचता रहा, जागते सोते..
कौन है जो आ कर मेरे अतीत को देता है थपकियाँ 
जगाता है मेरे सोये हुए अरमानों को 
पूछता है मेरा नाम और
बस मुस्कुरा भर देता है.
मैं जा कर अपने अतीत में
खोजता हूँ हर कोना, हर लम्हा,
ऐसा कोई शख्स 
जो मेरे पास तो था
पर निकट नहीं था
जो मेरा था
मगर अपना नहीं था
अपना और पराये में
एक घमासान 
मेरे सोच पर लगी पाबंदियां 
ठहरो, ज़रा कुछ सोच उधार मांग लूं. 

Monday, May 9, 2011

आओ सुने एक गीत ...

आ बैठ कर छत की मुंडेर पर
सुनकर कबूतरों की गुटर  गु 
थाम कर तुम्हारा हाथ 
चूम लूं  सने हाथों को
रच जाये हीना की खुशबू .

उतरते चाँद को देखो
हो रहा उदास
भय कम्पित, कि
आयेगा सूरज तो
भूल जायेंगे सब चाँद को.

तुम करो बात और मैं सुनता रहूँ
तुम कहो ग़ज़ल और मैं सुनता रहूँ 
थामें तुम्हारा  हाथ मैं
ताकता रहा चाँद को
चाँद भी ऐसा नहीं
मेरे पड़ोस के गोयल साहब की तरह
रोज़ देर से आते हो
और फिर दिनों गायब  रहते हो.


अपना जो माजी था .......

एक खुली किताब के पन्नों की तरह
उड़ता जा रहा था
जो कहे से ना बने वही बात
जो ढले से ना ढले वही रात.
अफसानों में ढल गयी है शाम अभी
पढने को फिर वही  एक  किताब
जिस में तिलस्मी ऐय्यारी भी है
और है मेरे दीवानेपन की दास्तान भी
बेकारी भी है और बेक़रारी भी.
बस एक तुम हो
और यह ठहरा हुआ वक़्त
और बीते  वक़्त के तकाजे 
जो भूलते नहीं
याद तो रहते ही नहीं.