Sunday, May 15, 2011

अफ़सोस है !

एक इंसान के जीते जी मरने का अफ़सोस है मुझे
मगर उस से भी ज्यादा यह की मैं कुछ कर नहीं पाया
बस बैठ कर उसके पास थम कर उसका हाथ
देता रहा दिलासा
वह फिर भी चुकता रहा
घडी घडी
घटता ही रहा
कतरा कतरा फिसलता रहा
रेत की मानिंद मेरी हाथों से 
और मैं?
मौन 
ताकता रहा
अपनी हथेलियों को
जहाँ रेत था तो
मगर धब्बों में.


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