गाँधी तुम मरे नहीं
किसी गोडसे की गोलियों से नहीं मरे तुम
तुम्हें मारने की योजना तो सदियों से चली आ रही थी
वैसे ही जैसे तुम्हारे आने की उम्मीद में जी रहे थे सदियों से
और फिर तुम आ गए औचक ही
मींच कर आँखें देखा तो वह तुम नहीं थे।
वह तो घुटनों तक धोती पहने, नंगा बदन
लिए हाथ में एक लम्बी सी लाठी
तुम कहाँ चले गए?
अब और कितनी सदियाँ रुकना होगा
कब मिलेगी आज़ादी हमें
कब होंगे हम आज़ाद अपने ही जेल से
बंधे हाथ हमारे
सिले होठ भी
किस तरह पुकारें तुम्हारा नाम
लो अब तो नाम भी भूल रहा है मुझे
ओ लाठी वाले बाबा
कहीं गाँधी को देखो तो मुझे उसका पता बता देना.
Wednesday, May 19, 2010
Saturday, May 8, 2010
आओ चलें धुप में
ज़िन्दगी जी, तो किस कदर
उम्र बसर की, तो किस तरह
कहने को तो हुए उम्रदार हम भी
मगर सफ़ेद हुए बालों से तजुर्बों का क्या ताल्लुक?
मजहबी बातें हैं, क़ाज़ी जी समझ लेंगे
हम पढ़ पढ़ कर किताबें और भी नादान हुए
तुम्हारी बात कुछ और है
तुम तो ले कर डिग्री आलिम बने बैठे हो।
सुनो समझदारों, अब वक़्त आ गया है
फलसफों को भूलने का
मजहब को घर और दिलों में में रखने का
और निकल कर कच्ची धुप में
बारिश की तलाश में हाथ पसारे घूमने का।
उम्र बसर की, तो किस तरह
कहने को तो हुए उम्रदार हम भी
मगर सफ़ेद हुए बालों से तजुर्बों का क्या ताल्लुक?
मजहबी बातें हैं, क़ाज़ी जी समझ लेंगे
हम पढ़ पढ़ कर किताबें और भी नादान हुए
तुम्हारी बात कुछ और है
तुम तो ले कर डिग्री आलिम बने बैठे हो।
सुनो समझदारों, अब वक़्त आ गया है
फलसफों को भूलने का
मजहब को घर और दिलों में में रखने का
और निकल कर कच्ची धुप में
बारिश की तलाश में हाथ पसारे घूमने का।
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