Friday, May 15, 2009

एक लड़की

एक लड़की ने कहा है कि वह आयेगी
जब सूरज झुरमुटों के पीछे छुप जायेगा
जब रात की काली चादर क्षितिज पर औंधे मुंह लेता होगा
जब मेरे आंखों में तुम्हारा नशा रच बस जाएगा
जब गुलमोहर के पेड़ तले मेरे सपने रंगीन ख्वाब समेटेंगे
मैं चुप चाप ले कर हरी घास हाथों में
जैसे तुम्हारे काले बाल
जैसे मेरी यादों के गुबार
जैसे मेरी दोस्ती पर लगा इल्जाम
जैसे लगा था चाँद पर भी दाग
जैसे सीता भी गुज़री थी अग्नि परीक्षा से
मैं भी इन टेढ़े मेढ़े रास्तों के मुंडेर पर
थामे अपने भाग्य की लकीरें
सोचता हूँ
क्यों नहीं मैं आज के गर्भ में बैठे कल की खुशबू
पीता हूँ अपनी आंखों से
जैसे देर तक इंतज़ार मैं बैठा कोई पथिक ताकता है
सूनी अनजानी राहों को।

एक नई ग़ज़ल

इस शाम से शुरू हुई एक नई दास्ताँ
कुछ हरी कुछ पीली, एक नई दास्ताँ।
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कहना नही कुछ भी अभी, सुनना नही तुमसे कोई
हर शाम को, करके शुरू एक नई दास्ताँ।
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मेरे हुजुर में होता है सब, एक नया तमाशा हर दिन
सोचा किए, देखा किए, हर की नई दास्ताँ
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मेरा नही अपना कोई, मेरा नही सपना कोई
हर शाम फिर वही भूली हुई सी दास्ताँ
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जंगल भी है, बगीचे भी हैं, फूलों से भरी वादी भी है
इस सहरा में, तुमसे जुड़ी महकते हैं कई दास्ताँ ।
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चलने को न हों राहे मगर, सोने को है माहौल सही
नींद भी आती है खूब, जब जब सुनी वही दास्ताँ।

Wednesday, May 13, 2009

एक गोरी दोस्त के नाम

कभी मेरे लिए झूठ बोल कर देखा है
कभी मेरे लिखे लफ्ज़ पढ़ कर बेमानी तारीफ़ की ही
मेरी एक गोरी दोस्त
मुझे खुश करती है,
जैसे बचपन में कोई लड़की
बारिश के पानी में कागज़ के नाव बना कर देती थी बहाने को।
खुश होना भी कितना आसान है
कुछ कहो झूठ भी मगर ऐतमाद से
और दिल है की बल्लियों उछालने लगता है
मेरे दोस्त यूँ ना मेरी कमजोरियों पर पर्दा डालो
मैं बुझी राख हूँ
कहाँ यहाँ है आग जिसपर तरानो की गर्मी आए
कहाँ इसमे कोई लौ की कोई रौशनी हो
मैं बुझी शमा हूँ
अब किसी शरारे की कोई उम्मीद नही बाक़ी
बस लम्बी एक रात है
बस एक लम्बी काली रात
उस तरफ़ है कोई रौशनी
क्या पता।


मेरे हसीं ख्वाब

किसी रात के गहरे अन्धकार में
मैं सुनता हूँ सन्नाटों की चीख पुकार
लोग सुन कर भी सो रहे होते हैं
मगर मैं पुरे होश में
नींद से कोसों दूर
अपनी यादों के साये में
जब काला अन्धकार पी रहा होता हूँ
तब तुम बहुत याद आते हो।
मेरी ज़रूरतों का ताना बना
मेरी मजबूरियों का टोकरा
तुमसे अनजानी
मुझसे जनम जनम का रिश्ता
मेरे आँगन जैसे बना लिए अपना बसेरा
बस मेरे लिए ही बनी हो जैसे
मेरे हसीं ख्वाब
क्यूँ हो गए हो मुझसे दूर
क्यों मैं पराया हो गया हूँ
आ भी जाओ की मैं अब भी
वही हूँ
जिस से कभी थी आशना
जिस से कभी था दोस्तों सा प्यार
मैं अब भी वही प्यारा सा दोस्त हूँ तुम्हारा।

Monday, May 11, 2009

एक आदमी का मन

अजीब है यह अंतहीन सफर
मेरे हाथ से निकल कर मेरे आंखों में समां जाती है सड़के
मेरे बालों की नमी से
कहते है की
उनके ख्यालों की फसल उगती है
मेरे आंसू से सिचाई होती है
मेरे उंगलीयोंके पोरों से निकल कर मेरा अस्तित्व
किसी गैर की बन जाती है संपत्ति।
क्या मैं इस चक्रव्यूह को समझ सकता हूँ?
नहीं मैं इस से बाहर निकलना नहीं चाहता
न ही मैं इसे तोड़ना चाहता हूँ
मैं तो बस इसे समझ कर अपना सुरक्षा कवच बनाना चाहता हूँ
हैरान ना हों
मैं अधुमिक आदमी हूँ
जो हर मौके से फायदा निकालना जानता है
तब अभिमन्यु था की मर गया
आज मैं इस चक्रव्यूह को ही अपना ताकत बनाना चाहता हूँ।
मैं इस अंत हीन सफर को भी अपने हित में मोड़ना चाहता हूँ
क्या पता यह सफर ही मेरा व्यवसाय बन जाए!




Wednesday, May 6, 2009

एक दिल्ली यह भी

तुम्हारी दुनिया से मुख्तलिफ
हमारे तुम्हारे ख्वाबों से अलग
बिल्कुल बेरंग
बेस्वाद
बेसुरा और बेताला
मेरे अरमानों पर करता वार
एक दिल्ली यह भी है।
सरसराती कारों तथा बड़े बंगलों के शहर में
हमरे लिए महज एक ख़बर
जिस पर हम चाय की चुस्की पर
हैरान होने का आनंद ले सकते हैं।
रातों में लुटती मरती निरीह महिलाएं
और बिखरा हुआ उदास शासन तंत्र
सिर्फ़ अख़बारों के काले मोटे हर्फ़
हमें चौंकाने को बेताब।
एक तालिबान यहाँ भी है
दिन और रात में घूमता है सड़कों पर
तलाश में की कोई शिकार मिले
डरे हुए माँ बाप अपनी बेटियों की कुशल वापसी के लिए
करते दुआ
मगर मरती है कई निर्दोष बालिकाएं
कभी गाड़ी के अन्दर
तो कभी गाड़ी के नीचे
अफ़सोस
की सरकार फिर भी मांगती है वोट हमसे
हमारी बहु बेटियों के नाम पर
और मैं चिल्ला भी नही पता.

Sunday, May 3, 2009

तुम जियो हजारों साल..........

मेरे दोस्त तुम्हे क्या कहूं आज
मेरा दिल तो जबान को चलने नहीं देता
आज तुम सा एक अजिमुशान शख्स पैदा हुआ था
अज की ही दिन मेरे दोस्ती को मायने मिलना था
तुम हो की मैं हूँ
मैं हो की तुम हो
जब भी दामन फैलाया है
तुम्हारे दामन को बहुत पास पाया है
मेरे दोस्त फिर एक बार दोस्त कह कर पुकारो
मेर चश्मे नम में अब और पानी समा नहीं सकता.

एक नई सी ग़ज़ल

इस शहर में मेरा कोई नहीं है अपना
अब इसके रास्ते मुझे याद नही रहते।
नहीं है दोस्त तो न सही
मेरी तरह बेगैरत और भी होंगे यहाँ।
एक एक पत्थर चुन कर लायें हैं यह लोग
मारेंगे तो ठीक से निशाना लगा कर ही।
अपने जिस्म पर जितने भी घाव लगे हैं
उतने ही समझो हमारे चाहने वाले होंगे।
मैंने तो सोचा था यह शहर छोड़ दूँगा
मगर कौन इतने प्यार से वहां पत्थर चुनेगा।
यह शहर है रिश्तों का, मुहब्बतों का
क्या हुआ अगर मैं तनहा और बेघर ही रहा।
कभी इस मुंडेर पर बैठ कर शाम का ढालना देखो
तुम्हे भी इस शहर का अजनबीपन अपना सा लगेगा।