Sunday, May 3, 2009

एक नई सी ग़ज़ल

इस शहर में मेरा कोई नहीं है अपना
अब इसके रास्ते मुझे याद नही रहते।
नहीं है दोस्त तो न सही
मेरी तरह बेगैरत और भी होंगे यहाँ।
एक एक पत्थर चुन कर लायें हैं यह लोग
मारेंगे तो ठीक से निशाना लगा कर ही।
अपने जिस्म पर जितने भी घाव लगे हैं
उतने ही समझो हमारे चाहने वाले होंगे।
मैंने तो सोचा था यह शहर छोड़ दूँगा
मगर कौन इतने प्यार से वहां पत्थर चुनेगा।
यह शहर है रिश्तों का, मुहब्बतों का
क्या हुआ अगर मैं तनहा और बेघर ही रहा।
कभी इस मुंडेर पर बैठ कर शाम का ढालना देखो
तुम्हे भी इस शहर का अजनबीपन अपना सा लगेगा।






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