Thursday, April 30, 2009

इस सेहरा में

क्या हद है इस रेत के समुन्दर का
जहाँ तक जाती है निगाह
बस रेत ही रेत है
कुछ अलसाये से
ऊबे हुए ऊँट
और कुछ प्यासे से उनके सवार
सब के सब बिल्कुल निस्पृह
जैसे कुछ हो ही नहीं रहा हो।
और शयद कुछ हो भी नहीं रहा था
बस मैं था कि
पानी कि आस में
प्यास को बुझाये जा रहा था
और मेरी सजग आंखों में
उदासी तो थी
मगर थे कुछ पुराने से ख्वाब
जिनके सहारे मैंने जवानी के कुछ दिन बिताये थे
और जो आज भी मेरे लबों पर मुस्कान ला देते हैं।
अब ऊँट बड़ा दीखने लगा है
अब वह पानी कि तलाश में नहीं लगता है
उसे अब गंतव्य तक रास्ता दीखता है
सहसा वह मुझे ऊँट की जगह सिपाही लगने लगा है
सीधा
सचेत
अपने गंतव्य के प्रति उत्सुक
निश्चय ही मैं मृग मरीचिका में हूँ
अपनी आँखें बंद कर मैं
अपने प्यास सिक्त होठों पर फेर कर जिव्हा
सोने का प्रयास करता हूँ
क्या सफल हो पाऊंगा मैं?

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