Wednesday, December 14, 2011

रुको तो ज़रा ..


मेरे माजी से आती सदा
मेरे दीवानेपन  का  पूछती  सबब
क्या  बताऊँ  मैं
मुझे  तो कुछ  भी याद नहीं
फिर हटा कर फूलों को
पढ़े  सरे  सफे  तो याद आया
यह  तो वही  है
जिसने  भरे  बाज़ार में झुकी आँखों से
दिल भर कर देखा था
देने को था हाथ में एक ख़त
और लरजती ज़बान से कहा था
रुको तो...

रोको तो ज़रा ..

मेरे माजी से आती सदा
मेरे दीवानेपन  का  पूछती  सबब
क्या  बताऊँ  मैं 
मुझे  तो कुछ  भी याद नहीं
फिर हटा कर फूलों को
पढ़े  सरे  सफे  तो याद आया
यह  तो वही  है
जिसने  भरे  बाज़ार में झुकी आँखों से
दिल भर कर देखा था
देने को था हाथ में एक ख़त
और लरजती ज़बान से कहा था
रुको तो...

Friday, November 25, 2011

पग डंडियाँ


न  हो सड़क
तो नयी पग डंडियाँ बन आएगी
जी, उगा ली नयी रेखाएं मैंने हथेलियों पर
जैसे खींच आई सिलवटें मेरे माथे पर
उम्र का तकाजा नहीं
यह चेहरे का बदलत स्वरुप
ज्यों घटता बढ़ता चाँद 
ज्यों गरीब की घटती  और दुकानदार की बढ़ती आमदनी .
मेरे दोस्त मुझ पर अब यकीन न कर
मेरे हाथो में तलवार नहीं कलम आ गयी है
मेरे सर पर गाँधी टोपी नहीं
लाल कफ़न आ गया है
ले कर कुदाल और खुरपी मैं
उगाने निकल पड़ा हूँ पग डंडियाँ 
देखो तो मेरे हाथों की रेखाएं
अब और भी गाढ़ी हो चली हैं.

Tuesday, November 22, 2011

देखो तो!

कल सुबह से
बारिश है की थमती नहीं
कल रात से कालिमा है कि रूकती नहीं
एक साल से और भी है फ़साने
दिल पर भारी भारी से
सोचता रहा मैं कई दिनों से
होती रही बारिश सारी रात
बरसते रहे अँधेरे
औंधे मुंह गिरते रहे फ़साने
तब, करने को कुछ नहीं
सिर्फ धुंध
और धुंधलापन
जैसे किसी यौवन का आवारापन
दीखता है सब
समझता कुछ नहीं.




Wednesday, September 7, 2011

मैं 
तुम
और
नीला गगन
एक उडती चिड़िया 
बचती चीलों से 
सोची 
कितनी भग्यशाली हूँ की चील मुझे खा नहीं जाता 
तभी झपट्टा मरा चील ने
मगर बल बाल- बाल बच गयी चिड़िया
  • एक   ढली  ही   सी  शाम   को  
  • बहे   है   बयार  
  • ठंडी  , सुस्ताई  सी  
  • पूछा  मैंने  अपने  अपने आप से 
  • तो  मेरे  स्वयं  बोला 
  • बोलो 
  • क्या  है
  • क्यूँ  मैं  अजीब  सी दास्ताँ  से गुजर  रहा  हूँ 
  • क्यूँ मेरे साथ  ऐसा  होता  है
  • छत  की  मुंडेर  पर  बैठी  एक चिड़िया 
  • थोड़ी  चहकी 
  • थोड़ी फुदकी 
  • और  उड़  गई 
  • फुर्र्र्रर्र्र्रर्र्र 

Sunday, August 28, 2011

जो मैंने किया ....

 देखो एक चिड़िया थी 
छोटी और निरीह 
बैठी मेरे खडकी के पल्ले पर 
हिलती डुलती
चहकती फुदकती
आसमान को निगलती
मेरे तुम्हारे चाहरदीवारी में 
बंद किस्मतों पर हंसती रही. 

सोचिये ...

सोचिये तो ज़रा 
कोई क्यूँ मेरी मुस्कराहट का दाम लगाता है
कोई क्यूँ मेरे होने के मानी निकालता है
मैं तो सिर्फ जीने की कोशिश कर रहा हूँ
और मेरा मन?
वह तो कुछ कहता ही नहीं. 



धुप की महक

देखा मैंने कच्ची धुप 
उस पहाड़ की मुंडेर पर 
चाहा बढ़ा कर
थाम लूं मुट्ठी भर महकती धुप
महक गया बदन बदन
हाथ आया कुछ भी नहीं. 


Wednesday, July 6, 2011

वही कहानी

ठंडी चाय 
गरम पानी
नयी किस्मत
वही कहानी. 

Monday, June 20, 2011

कौन से ठिकाने

उठो जागो चलो
तीन शब्द
लम्बी कहानी.

Friday, June 17, 2011

हवा में यह कैसी सुगंध!

तुम्हारी गली से आई हवा
ले कर आई है 
तुम्हारी याद और तुम्हारी टीस
ढूंढता रहा मैं फिर भी 
बेराह में दिशाएँ 
थक गयीं आँखें
चुक गयी हिम्मत
मगर फिर भी बैठा रहा मैं 
इस इंतज़ार में
कभी तो आओगे!

Friday, June 10, 2011

मजबूरियाँ

मेरी हसरतें मेरा नाम जानती हैं
बुला कर मुझे कहती हैं
देखो तो जरा
क्या है मेरे हाथ में?
ले कर जब मैं उसका हाथ
खोलता हूँ मुट्ठी 
बहती है रेत की धार
गर्म रेत जो जलाता है हाथ
अपने आंसुओं की तरह
तोड़ कर बदन
करता है आत्म संवाद 
मैं सुनता हूँ चुप चाप
कैसी मजबूरियाँ!

Tuesday, May 31, 2011

कलम या तलवार ?

उसने पूछा
कौन बड़ी 
कलम या तलवार 
बहुत सोचा 
जंग लगी  तलवार 
या फिर
बिना सियाही की कलम?

छोटी कविता

एक बीमार 
एक अनार 
हिसाब बराबर.

धब्बे

 हाथों पर लगे रक्त के धब्बे
मुंह पर पुती सियाही 
हौसला है पस्त
किस बात से करे हम 
किस्मत  से मुंहजोरी.
हर एक दिशा में 
हर एक कहानी में
उन धब्बों की दिखी है छवि
मैं स्तब्ध, अशांत, मूक. 
एक अभिसारिका सी 
विस्मृत पलों की देती गवाही
मैं चुप चाप
मल कर अपने हाथों को
जिन्न पैदा करने की कोशिश करता रहा.
धब्बे अब नहीं दिख रहे.



एक कहानी यह भी है

सुनो जी, एक कहानी यह भी है
न हादसा है, न धमाका है, मगर कहानी तो फिर भी है.
न राजा   है, न रानी है,
न तिलिस्म है, न कोई जादू है.
मगर कहानी तो फिर भी है.
न कोई महा पुरुष है, न कोई बड़ी घटना है,
न सत्य के लिए लड़ी महाभारत जैसी कोई लड़ाई है
मगर कहानी तो फिर भी है.
न गाने हैं, न ड्रामा है,
न हीरो है न मटकने वाली हीरोइने  है
मगर कहानी तो फिर भी है.
एक इमानदार, अनाम, बेशक्ल सी ज़िन्दगी 
एक इमानदार तरीके से जी हुई ज़िन्दगी.
इसे भी जीना मानेंगे आप?
न लिखी हो किसी ने मेरी जीवनी
मगर ज़िन्दगी तो मैंने भी जिया है.

Sunday, May 15, 2011

अफ़सोस है !

एक इंसान के जीते जी मरने का अफ़सोस है मुझे
मगर उस से भी ज्यादा यह की मैं कुछ कर नहीं पाया
बस बैठ कर उसके पास थम कर उसका हाथ
देता रहा दिलासा
वह फिर भी चुकता रहा
घडी घडी
घटता ही रहा
कतरा कतरा फिसलता रहा
रेत की मानिंद मेरी हाथों से 
और मैं?
मौन 
ताकता रहा
अपनी हथेलियों को
जहाँ रेत था तो
मगर धब्बों में.


Wednesday, May 11, 2011

विस्मृत और ....

मेरी दृष्टि पटल पर एक धुंधला सा चेहरा
किसका था
याद नहीं 
सोचता रहा, जागते सोते..
कौन है जो आ कर मेरे अतीत को देता है थपकियाँ 
जगाता है मेरे सोये हुए अरमानों को 
पूछता है मेरा नाम और
बस मुस्कुरा भर देता है.
मैं जा कर अपने अतीत में
खोजता हूँ हर कोना, हर लम्हा,
ऐसा कोई शख्स 
जो मेरे पास तो था
पर निकट नहीं था
जो मेरा था
मगर अपना नहीं था
अपना और पराये में
एक घमासान 
मेरे सोच पर लगी पाबंदियां 
ठहरो, ज़रा कुछ सोच उधार मांग लूं. 

Monday, May 9, 2011

आओ सुने एक गीत ...

आ बैठ कर छत की मुंडेर पर
सुनकर कबूतरों की गुटर  गु 
थाम कर तुम्हारा हाथ 
चूम लूं  सने हाथों को
रच जाये हीना की खुशबू .

उतरते चाँद को देखो
हो रहा उदास
भय कम्पित, कि
आयेगा सूरज तो
भूल जायेंगे सब चाँद को.

तुम करो बात और मैं सुनता रहूँ
तुम कहो ग़ज़ल और मैं सुनता रहूँ 
थामें तुम्हारा  हाथ मैं
ताकता रहा चाँद को
चाँद भी ऐसा नहीं
मेरे पड़ोस के गोयल साहब की तरह
रोज़ देर से आते हो
और फिर दिनों गायब  रहते हो.


अपना जो माजी था .......

एक खुली किताब के पन्नों की तरह
उड़ता जा रहा था
जो कहे से ना बने वही बात
जो ढले से ना ढले वही रात.
अफसानों में ढल गयी है शाम अभी
पढने को फिर वही  एक  किताब
जिस में तिलस्मी ऐय्यारी भी है
और है मेरे दीवानेपन की दास्तान भी
बेकारी भी है और बेक़रारी भी.
बस एक तुम हो
और यह ठहरा हुआ वक़्त
और बीते  वक़्त के तकाजे 
जो भूलते नहीं
याद तो रहते ही नहीं. 





Monday, March 14, 2011

बदली हुई विषमतायें .........

देखा जो अपने अन्दर तो सहम गया मैं
मैं अब मैं नहीं रहा था
मेरी ही शक्ल में कोई और सजा बैठा था
मेरी मेज पर तना, बैठा, लिख रहा था मेरा ही भाग्य.

देर तक मैं बैठ  कर पास के सोफे पर
सोचता रहा अपनी बीती कहानी पर
क्या शीर्षक दूं
आत्मकथा या आत्माहन्ता ?

लिए कलम हाथों में 
देखता रहा शुन्य में
कौन हूँ मैं
इस लेखनी का धारक
या फिर इन शब्दों का गुलाम!

अब नहीं तो कब?

ऐसी सूरतें उभरी हैं की ज़बान हिलती नहीं
मेरे जानिब से चली हवा में मेरी महक नहीं
कहते हैं वह ऐसे ही मगर
मेरे वजूद है कि आइने में उतरता ही नहीं.

सोचने का न मिले वक़्त तो कुछ और से काम चलाइए
फुर्सत में हम भी कौन से तीर मारते हैं
आइये चले उस फलक की तरफ
हमारा  जहाँ कोई नहीं रहता.

ऐसे में कहें तो कुछ और ही मतलब निकलेगा 
मगर मेरा दिल है कि बस नासाज़ सा है
तुम हो कहीं, और तुम नहीं भी हो
ऐसी हालातों में मैं किस से क्या पूछूं?



Friday, February 18, 2011

नैनो कार

मेरी हसीन ख्यालों का काफिला
मेरे वजूदों का हुजूम 
और पेड़  की डाल पर बैठी एक छोटी सी चिड़िया
मेरी प्यारी नैनो कार.

Saturday, February 5, 2011

मुंडेर पर बैठी ठंडी हवा

देखो तो यह कौन खड़ा है छत की मुंडेर पर
लगता है लगा गए पर मेरे अरमानों को.
एक चांदनी सी रौशनी है, एक खिला हुआ सा चेहरा है
देखो जरा गौर से, मेरे महबूब सा लगता है.
ऐसा भी होता है, बैठ कर मुंडेर पर और ताके है कोई
कोई है आने वाला, कोई है जिसका होता है इंतज़ार.
यह चाँद है, या फिर है कोई रकासा, या कोई हुस्न परी
मेरी जानिब से गयी है ठंडी बयार, जरा छू कर तो देखो.

Sunday, January 23, 2011

इब्तिदा-ए-जिंदगीनामा

कुछ तो गनीमत है कि उन्होंने न नहीं कहा
उनसे कैफियत की तो कोई उम्मीद नहीं थी बाकी.
कैसे कैसे दोस्त हमारे, हम से करे हील-ओ- हुज्जत
मेरी दोस्ती का वास्ता देकर, छीनें हमसे राज हमारे.
मैंने कहा सुनो यह बात है पुरानी
तो कहने लगे कुछ नयी कहो, पुरानी बातों से होते हैं घाव हरे.
वह जो हम थे, वह जो हम हैं
एक पूरा सफ़र निकल गया है इस दरमयान में.
सुन ने को बैठे थे पूरा फ़साना मगर
जब बात निकली तो तुम पर आकर ठहर गयी.
आओ फिर से करें इब्तदा-ए-जिंदगीनामा
कुछ नहीं तो रोयेंगे साथ साथ.