Monday, March 14, 2011

बदली हुई विषमतायें .........

देखा जो अपने अन्दर तो सहम गया मैं
मैं अब मैं नहीं रहा था
मेरी ही शक्ल में कोई और सजा बैठा था
मेरी मेज पर तना, बैठा, लिख रहा था मेरा ही भाग्य.

देर तक मैं बैठ  कर पास के सोफे पर
सोचता रहा अपनी बीती कहानी पर
क्या शीर्षक दूं
आत्मकथा या आत्माहन्ता ?

लिए कलम हाथों में 
देखता रहा शुन्य में
कौन हूँ मैं
इस लेखनी का धारक
या फिर इन शब्दों का गुलाम!

अब नहीं तो कब?

ऐसी सूरतें उभरी हैं की ज़बान हिलती नहीं
मेरे जानिब से चली हवा में मेरी महक नहीं
कहते हैं वह ऐसे ही मगर
मेरे वजूद है कि आइने में उतरता ही नहीं.

सोचने का न मिले वक़्त तो कुछ और से काम चलाइए
फुर्सत में हम भी कौन से तीर मारते हैं
आइये चले उस फलक की तरफ
हमारा  जहाँ कोई नहीं रहता.

ऐसे में कहें तो कुछ और ही मतलब निकलेगा 
मगर मेरा दिल है कि बस नासाज़ सा है
तुम हो कहीं, और तुम नहीं भी हो
ऐसी हालातों में मैं किस से क्या पूछूं?