देखा जो अपने अन्दर तो सहम गया मैं
मैं अब मैं नहीं रहा था
मेरी ही शक्ल में कोई और सजा बैठा था
मेरी मेज पर तना, बैठा, लिख रहा था मेरा ही भाग्य.
देर तक मैं बैठ कर पास के सोफे पर
सोचता रहा अपनी बीती कहानी पर
क्या शीर्षक दूं
आत्मकथा या आत्माहन्ता ?
लिए कलम हाथों में
देखता रहा शुन्य में
कौन हूँ मैं
इस लेखनी का धारक
या फिर इन शब्दों का गुलाम!
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