Monday, May 9, 2011

अपना जो माजी था .......

एक खुली किताब के पन्नों की तरह
उड़ता जा रहा था
जो कहे से ना बने वही बात
जो ढले से ना ढले वही रात.
अफसानों में ढल गयी है शाम अभी
पढने को फिर वही  एक  किताब
जिस में तिलस्मी ऐय्यारी भी है
और है मेरे दीवानेपन की दास्तान भी
बेकारी भी है और बेक़रारी भी.
बस एक तुम हो
और यह ठहरा हुआ वक़्त
और बीते  वक़्त के तकाजे 
जो भूलते नहीं
याद तो रहते ही नहीं. 





No comments:

Post a Comment