Sunday, February 26, 2012

नशा कितना है

एक पुराना सा दोस्त है जो अपना सा दीखता है

मेरे आस पास ही रहता है , कानो में कुछ कहता है
देखो तो दूर से आती है सदा उसकी
मान जाओ यार , तुम्हारी याद आती है.
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कहा जब उस से उस दिन का फ़साना तो वह रो पड़ा
जब एहसास -ए दर्द इतना है तो फिर इज़हार -ए मुहब्बत इतना हल्का क्यों.
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एक रोज़ कहा था ही तुम हो बुत - ए मुहब्बत
सब बात भूली पर यह क्यों याद रही
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कहना था कुछ और , कह दिया कुछ और
देखो तो तुम्हारे होने का नशा कितना है 
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Tuesday, February 21, 2012

हर बात कहानी है


ज़िन्दगी  एक  रूखे  यार  पर  तबुस्सुम  की  कहानी  है 
कुच्छ  नयी  कहानी  है , कुछ  पुरानी कहानी  है 

 कहने  तो  क्या  है  हमारे  पास  जो  चुप  रहे 
एक  अजीब  सी  ज़िन्दगी  की  छोटी सी  कहानी  है

मेरी  किस्मत  का  देखिये  निकलते  ज़नाज़ा
एक  बात  तो  प्यारी  सी , मगर  कहानी  है

तुम  जो  तुम  हो  मगर  मेरे  में  हो  शामिल 
मेरी  तो  क्या  कहिये , हर  बात  कहानी  है

कहना  तो  चाहा हर  बात  जो  दिल  में  है 
मगर  कहने  पर  आये  तो  कहा  हर  बात  कहानी  है.

Thursday, February 16, 2012

ख्वाब टूटे से

किसी से कहिये मेरा अक्स उतारे अपने घर के शीशे में
मेरी भी तबियत कुछ अच्छी हो जाएगी .
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पूछा किसी से अपना ही पता तो क्या कहिये
उन्होंने बता दिया घबरा  कर  अपने घर का पता.
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इस तरफ से आती है उनसे  महकी हवा
छू कर देखा तो हवा कुछ गीली सी लगी.
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महकी हुई बयार का नाम क्या दीजिये
और नहीं कुछ तो तुम्हारा नाम ही दे देते हैं.
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लश्कर -ए ख्वाब मुझे छेड़ते रहते हैं
एक और हसरत अब वाकया बन गया लगता है.






Wednesday, February 8, 2012

उफ़ यह इंतज़ार...

तकते रहिये घडी और वक़्त गुजरे नहीं
इस इंतज़ार को क्या कहेंगे.
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उनका न आना भी एक रिवाज़ सा हो गया था
यह हम थे की फिर भी पुरसुकून करते जाते थे इंतज़ार.
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एक उनकी हंसी, एक उनके बदन की नमकीन खुशबू
सब याद है मुझे अपने कतरों में 
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मैंने भी सोचा थाम लूं वक़्त को
मगर खोली मुट्ठी तो पाया सिर्फ महकता रेत
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ज्यों जाड़े की कच्ची धुप और बंद आँखें
मेरी आगोश में नरम पीली धुप और तुम. 


कैसे कहूं

वह जो हमारा भी है और तुम्हारा भी
वह जो आदि भी है अनादी भी
वही जो सुन्दर भी है और सत्य भी
वही जो है भी और नहीं भी
मेरे ही होने से निकल कर
मेरे न होने का बना प्रमाण
मेरे होने न होने से अगर कुछ होता तो
न होता कुछ भी अब तक तो 
बाकी  न रहता कुछ भी
सब अशेष, कुछ रहा रहा सा
मेरे हाथों से फिसलते रेत जैसा 
सब कितना भरा भरा, कितना रीता.

Tuesday, February 7, 2012

कुछ नहीं

कुछ इस तरह से बीत रही है यह ज़िन्दगी
जैसे पलटते हैं खुली किताब के पन्ने
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हम ने देखा अपने माजी के फ़साने उड़ते हुए
सूखे हुए पत्तों का बना लिया तकिया हमने
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एक कहानी थी सुनी अपने बचपन में कभी किसी से
आज फिर रोने का जी क्यूँ कर रहा है
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कुछ हसरतें हैं जो अनबुझी प्यास की तरह मंडराती हैं आस पास
मेरे लिए नहीं सही, किसी और के लिए ही सही, मुस्कुराओ तो
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रात भर जगा रहता हूँ क्यूँ आज कल
यह कौन है जो मेरे लिए दुआएं माँगता है.