Tuesday, February 7, 2012

कुछ नहीं

कुछ इस तरह से बीत रही है यह ज़िन्दगी
जैसे पलटते हैं खुली किताब के पन्ने
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हम ने देखा अपने माजी के फ़साने उड़ते हुए
सूखे हुए पत्तों का बना लिया तकिया हमने
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एक कहानी थी सुनी अपने बचपन में कभी किसी से
आज फिर रोने का जी क्यूँ कर रहा है
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कुछ हसरतें हैं जो अनबुझी प्यास की तरह मंडराती हैं आस पास
मेरे लिए नहीं सही, किसी और के लिए ही सही, मुस्कुराओ तो
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रात भर जगा रहता हूँ क्यूँ आज कल
यह कौन है जो मेरे लिए दुआएं माँगता है.

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