Saturday, February 27, 2010

किसने कहा?

कल शाम जब ढल रही थी
उस दिन जब सूरज निकल रहा था
एक दिन और जब बारिश की फुहारों ने गीले कर दिए थे मेरे सपने
और फिर वह दिन जब इन्द्रधनुष की कमान पर चढ़ कर
विलुप्त हुए तुम मेरी दृष्टि ओर दिल से
किसने कहा था
समाप्त हुआ एक युग
किसने कहा था प्रेम कि हुई मौत।
तब से आज तक मैं तुम्हारे छुअन को आत्मसात किये हूँ
हर पल
हर डगर पर
तुम्हारा साथ सजाये नयनों में
किसने कहा था वह एहसास के धरातल पर का प्यार
मैं तो आज भी छू पा रहा हूँ
उँगलियों के पोरों से टपकते लाल रक्त की मानिंद।

Thursday, February 25, 2010

गरीबी हटाओ..

अमीरों देखो तुम्हारी गाडी के नीचे
काली रेंगती सड़क कुम्हला रही है
तुम्हारे बेरहम चक्कों ने पिस दिए हैं उसकी आत्मा
रो रो कर कह रहा है सड़क के किनारे खड़ा यह बूढा पेड़।
यह नीम है या जामुन
क्या फर्क पड़ता है
नीम हो तो लोग तोड़ लेंगे टहनियां दातुन बनाने को
गर हो jamun तो लोग करेंगे इंतज़ार उस मौसम का जब फल आएंगे
कडवापन भी बचा नहीं पाता नीम को।
सोचती रही बूढ़ी हो गयी सड़क
क्यों यह ped कहीं और नहीं जाता
क्यों किसी बदनुमे दाग कि तरह मेरी किस्मत par विराजमान रहता है
पेड़ भी सोचता रहा
कितना भला था
जब यह सड़क नहीं थी तो कितनी हरियाली थी
कितने खुश थे लोग बाग़
अब तो चलन ही बिगड़ गया है
लोगों में शर्म बाकी ही नहीं रही
बस एक मैं था जो सोचता रहा
क्या करू इस सड़क का
मुझे तो इस पेड़ कि तरह यहीं उम्र नहीं गुजारनी है
एक लंबा सफ़र है
और मैं थक रहा हूँ.


Monday, February 22, 2010

चुप भी रहो!

समुद्र पर खड़ा

मैं अपने हाथों में लिए पहाड़ी बर्फ

बेस्वाद जिव्हा से

खा रहा था मूंगफली

यह सोचता हुआ कि यह भी कैसा दाना है

जिसका तो नाम ही नहीं बचेगा

छिलके तोड़ हम बीज भी तो खा जाते हैं।

गरज कर समुद्र ने कहा

चुप भी रहो

मैं तो अपनी ही आवाज़ से परेशान हूँ

अब यह

मूंगफली तोड़ने कि आवाज़

है कि कान फाड़े डालती है।

Friday, February 19, 2010

किसकी किस्मत है यह

जब रास्ते छूट गए उजालों में
मैंने अंधेरों में खोजे हैं रंगों के मानी
लोग कहते हैं कि है यह किस्मत मेरी
मैंने अपनी लकीरों में तलाशे हैं कुछ अनजान से चेहरे
देख कर बताओ तो इनमे कोई शक्ल तुम्हारी तो नहीं?

Sunday, February 14, 2010

हद हो गयी

इस पड़ाव से उस मंजिल तक
रास्तों में लगे पेंच
हाथों के घाव
पैरों में कैसे चले गए
आँखों की नमी तुम्हें कैसे छू गयी
मुहब्बत भी क्या रंग दिखाती है
कहाँ से यह काफिला सजाती है
और मैं हूँ कि विस्मृत
जैसे
भूला हुआ कोई पथिक।
हद है!

Friday, February 12, 2010

मेरी कहानी

पीले हाथों पर मेहदी के रंग
सरसों के खेत में उगे बरगद
आसमान फट कर बात गया टुकड़ों में
जैसे मेरी कहानी
मुझसे से चलकर
तुम तक पहुँचने में
बाँट कई चिथरों में.

छोटी कविता

दो पंक्तियाँ
कई शब्द
कुछ मानी
आप समझे व्यंग्य
और मैं बहुत रोया सुन कर उसकी एक छोटी सी कविता।

Sunday, February 7, 2010

ऐ लड़की

ऐ लड़की सुनो ज़रा
तुम्हारे हाथों कि लकीरें तो देखूं मैं
यह लकीरें क्यों बनती हैं हमारे हाथों में
सालों से ढोते बोझ इनमे छले पड़ जाते हैं
सूख कर घाव अपने निशाँ छोड़ जाते हैं
और तुम इन्हें लकीरें कह देते हो !

Thursday, February 4, 2010

इब्न बत्तुता

क्या हंगामा है यह
क्या हुआ है इब्न बत्तुते के जूते को
क्यों हैं लोग परेशान इस भूले हुए यात्री पर
क्या हुआ अगर है कोई
किसी कि कविता से प्रभावित
क्या अनुभव पर
मिलकियत है किसी की
क्या अब सोचने पर भी लगेंगी पाबंदियां?
भाई बत्तुता
तुमने तो पूरी ज़िन्ज्दगी जी
और अब ज़बान पर भी चढ़े हो,
क्या बात है!