Friday, May 15, 2009

एक नई ग़ज़ल

इस शाम से शुरू हुई एक नई दास्ताँ
कुछ हरी कुछ पीली, एक नई दास्ताँ।
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कहना नही कुछ भी अभी, सुनना नही तुमसे कोई
हर शाम को, करके शुरू एक नई दास्ताँ।
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मेरे हुजुर में होता है सब, एक नया तमाशा हर दिन
सोचा किए, देखा किए, हर की नई दास्ताँ
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मेरा नही अपना कोई, मेरा नही सपना कोई
हर शाम फिर वही भूली हुई सी दास्ताँ
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जंगल भी है, बगीचे भी हैं, फूलों से भरी वादी भी है
इस सहरा में, तुमसे जुड़ी महकते हैं कई दास्ताँ ।
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चलने को न हों राहे मगर, सोने को है माहौल सही
नींद भी आती है खूब, जब जब सुनी वही दास्ताँ।

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