Thursday, July 30, 2009

कहने को जब कुछ न हो

कैसा लगता है
जब शब्द छोड़ने लगे हो मानी
जब निगाहों में नही हो कुछ भी मुस्कान बाकी
जब मेरे हाथों में ना हो कोई भी जुम्बिश
मैं अपने आप से लगूं डरने
मेरे माजी के कुछ सवाल मुझसे मेरे
भविष्य का हाल पूछें
मेरे होने ना होने का और क्या मतलब
अपने आप से ही खफा हैं आज कल कई लोग
कई लोग तो खुश होना जानते ही नही।
पंक्चर साइकिल की तरह
बिना सवारी के चलती
सवार ही खींचता है सावारी
लफ्ज़ ही ढूँढ़ते है मानी
अब वाकया क्या सुनाएँ
मानी ही बदल रहे हैं लफ्ज़ ख़ुद ही
मेरी सोच पर लगा है पहरा ।
अब कुछ कहें तो
कहने पर भी लगेगा साजिश का इल्जाम
लोग चुप रहने पर भी साजिश का गुमान करते हैं
फिर बोलने पर तो
निकलेंगी तलवारें
काटेंगे सर
बहेंगी अवसाद की नदियाँ
ठहरेंगी जो सब हैं मेरी सोच की परियाँ
मेरे ख्वाब मेरे होने का प्रमाण देते हैं
मैं जिंदा हूँ
इस लिए देखता हूँ ख्वाब
देता हूँ गालियाँ
कहता हूँ शेर और लगते हैं आपको लातीफे।
मेरी पहचान पर लगे हैं ताले
मेरी सोच को कोई ले गया है
चलो अच्छा ही हुआ है
जब कहने को हो कुछ भी नही
तो बेमानी बेस्वाद कविता से तो रोना ही बेहतर है.


















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