Thursday, July 16, 2009

हो गई है इन्तहा, अब बस भी करो!

खून बहे कितना
आख़िर बदन में खून होता ही कितना है
कितने तरदुद से मिलता है यह हाढ़ पर चढा मांस;
कितनी मुद्दत बाद देखी है मैंने अपने आंखों से मुस्कान
तुम्हारे आंखों में रच बस गई उस मुस्कान की
एक नई कहानी
मेरे से कोई मुख्तलिफ तो नहीं
लगता है जैसे बार बार सुना सुना
किसी धुनिये की टंकार।
या फिर किसी रोज बैठते हैं किसी छत की मुंडेर पर
तकते हुए आते, बैठते, गपियाते
अपने जवानी के दिनों की लम्बी गुफ्तगू
जैसे मेरे बदन में तो अभी भी मौजूद है तुम्हारी निशानियाँ
कुछ गम, कुछ गुस्सा एंड उअर ढेर सारा प्यार।
अब और ना सुनाओ
मैं सुन नहीं सकता
किस्सी और की खुशियों की दास्तां
मेरी कहानी से बिल्कुल अलहदा।
मेरे तुम्हारे घरो के फासले की तरह
लम्बी ही होती जाती है
अब बस भी करो
कितने और इम्तेहान
और कितने नतीजे
बीज बोए थे बड़े प्यार से
अब फल तो खा लेने दीजिये ।


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