Saturday, July 11, 2009

एक परिचित सा दिवास्वप्न

यूँ ही
औचक ही
जैसे कोई याद आया हो
दरवाजे पर ना पड़ी दस्तक की तरह
मुरझाये हुए फूलों की क्यारी
मेरे अतीत से विरोपित कुछ दबे से स्वर
आज व्यथित रूप से
मेरे लिए नए प्रतिबिम्ब बना रहे हैं
कुछ गोल कुछ चौकोर
मगर ढेर सारे टेढ़े मेढ़े उनींदे से स्वर
मेरे पास बैठ कर राग अडाना में माँ काली का भजन गा रहे हैं
यह इतना शोर क्यों है
यह क्या हो रहा है
क्यों मैं बैठ कर इस कोने में
इतना आह्लादित हो रहा हूँ
क्या पता कोई मुझे पागल ही ना समझ ले।

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