Monday, July 13, 2009

गुलमोहर बोलो तो!

फिर से आज तेज हवा चलने लगी है
फिर से काले बदल छा रहे हैं
दूर क्षितिज पर लंबे अन्तराल के स्वर
जैसे समंदर के लहरों पर फैल जाता मेरा अस्तित्व
आज फिर तेज धुप के बाद तेज हवा चल रही है
न जाने काया होने वाला है!
मैं उस दिन की ही तरह आज भी
उसी गुलमोहर के नीचे बैठा हूँ
याद है? वह दिन जब मैं जी भर कर रोया था?
याद है की तुम चुप चाप बस सुनते रहे थे
मेरा रोना
किए आँखें बंद
जैसे दादी माँ की कोई कहानी हो
पूछो तो जरा गुलमोहर से
कैसे बीते थे वे पल
मेरे साथ वह भी तो रोया था
बोल गुलमोहर बोलो
आज चुप रह गए तो अनर्थ हो जायेगा
और शायद कुछ भी न हो ।
हवा के चलने की आवाज़ डराने लगी है मुझे
लगता है गुलमोहर कुछ भी नही बोलेगा
क्या पता तुमने खरीद लिया हो उसे
जब मौसम और ईमान बिक सकते हैं
तो गुलमोहर क्यों नही?
फिर भी अगर तुम्हे गुलमोहर कुछ कहे
तो सुन लेना
शायद उसे मेरे हाल पर तरस ही आ जाए।
सुनते हो दुष्यंत?

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