Wednesday, July 8, 2009

जब कुछ नया न हो कहने को

कहते हैं आज फिर वही पुरानी सी बात
तुमने सुनी है कई बार, मगर
फिर भी आज कहने को दिल करता है
चलो शुरू करते हैं उन्ही पुरानी बातों का सिलसिला
जाने पहचाने अफसानों का कारवां
पुरानी सड़कों पर चलना कितना सुरक्षित लगता है
दिल को अपने दामन में थामे
अपनी यादों के गर्म लिहाफ में बंद
चले जा रहे जानीहुई राहों पर
जैसे पढता हो कोई सालों पुराने
अब पीले पड़ गए ख़त
जो मैंने लिखे थे तुम्हे पर कभी भेजा नही था
मेरी यादों की विरासत का अटूट हिस्सा
मेरी सोच का वारिस
सब कितना अच्छा लगता है
जैसे समोसे जलेबी का नाश्ता
जैसे नुक्कड़ पर नाई की दुकान पर बाल कटवाना
और सुनना विविध भारती पर मुकेश के गाने
फिर वही बातें
फिर वही राहें
जानी हुई राहों के अनजान सफर
तुम्हारे हाथों की खुशबू आज भी चंपा में बसी है
आज भी सुन सकता हूँ मैं तुम्हारे सुरीले तान
आज भी देख सकता हूँ मैं तुम्हारे चश्मे नम
आज भी दिल भरी हो जाता है
आज भी सब वैसा ही लगता है
.......................
चलो उसी नुक्कड़ की दूकान
पर बैठ कर
मिनाक्षी शेषाद्री की तेल से पुती पोस्टर को तकते
बस बिना कुछ किए बिताते हैं दिन
अब ऐसा कहाँ होता है।


1 comment:

  1. it was a lovely roamtic poem !beautiful!!never knew you were such a terrific poet.
    jo aaj hai woh bhi utna hi khubsurrat hai.
    jitne ki kaal tha.
    baas kuch ehsaas ki jaroorat hai.

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