Thursday, April 2, 2009

suraj ki dhoop ka swad

जब कोई मुझसे तोड़ता है नाता न जाने क्यूँ
मैं सोचता हूँ
जैसे अब बहेगी पुरवाई
अब चलेगी ठंडी बयार
मेरे मन के प्रांगन में खिल उठेंगे फूल
और मैं मोर सा देख काले बदल नाच नाच पड़ता हूँ.
यह हवा में रचा बसा अवसाद
मेरे मुह में ज़हर का सा स्वाद
मेरे लिए लाये हो जो फूल
लाओ मैं तुम्हारे बालों में लगा दूं
महक जाएँगी जुल्फें तुम्हारी
बस जायेगी तन मन में चन्दन की खुशबू.
अच्छा एक बात पूछूं
क्या तुमने कभी छो कर देखी है
छितिज पर फैल गयी लालिमा को
क्या कभी लिया है बाँहों में
अलसाई सी धुप को
मैंने चखा है
बरसात की पहली बूँद को
ले करे हाथों में
फिर सूंघ कर हरी सी शाम की बोझिल सी मुस्कराहट को
फिर फैल गया मैं
अपने सपनो की रेत पर
लगा कर सर तुम्हारे तस्सव्वुर पर
देखो मेरे सांसो में कैसे तुम्हारी खुसबू समा गयी है
और मैं बस तुम सा बन गया हूँ.

1 comment:

  1. प्रिय बन्धु
    बहुत अच्छा लगा आपका लेखन
    आज कल तो लिखने पढने वालो की कमी हो गयी है ,ऐसे समय में ब्लॉग पर लोगों को लिखता-पढता देख बडा सुकून मिलता है लेकिन एक कष्ट है कि ब्लॉगर भी लिखने पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं जबकि पढने पर कम .--------
    नई कला, नूतन रचनाएँ ,नई सूझ ,नूतन साधन
    नये भाव ,नूतन उमंग से , वीर बने रहते नूतन
    शुभकामनाये
    जय हिंद

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