Tuesday, April 14, 2009

आग का दरिया

मेरी सोच का वास्ता ना दो
मेरी हसरतों को न कुरेदो
मेरे ख्वाब अब बुत बन कर सदियों के लिए सो गए हैं
मुझे प्यास भी अब नही लगती
मेरी मुफलिसी मेरे ईमान को हिलाती है
मेरे अरमान अब बहुत ऊपर विचरते हैं
मैं अपने आप में नहीं हूँ
या कहें की मैं तो कभी भी मैं था ही नहीं
मेरे आप में मेरा कुछ आसमान और कुछ थोडी सी ज़मीन सम्मिलित है
और मैं यही सोचता हूँ
कि मेरा क्या है
कौन हूँ मैं
क्या है मेरा व्यक्तित्व
क्या है मेरी पहचान
लगती है मुझे यह सब
जैसे आग का दरिया है
जिसके साहिल पर बैठा मैं
रूमानी कविता लिखना चाह रहा हूँ
मगर लफ्ज़ हैं की पिघलते जा रहे हैं
मेरी सोच बर्फ होती जा रही है
और मेरा स्वत्व कहीं खो गया है।
जरा ले तो आओ एक नाव
जो पार करा दे मुझे इस दरिया के
बिना जले, बिना जलाए।

2 comments:

  1. वाह जी निर्मल जी बहुत बेहतरीन शब्‍दों को पिरोया हे आपने इस माला में

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  2. बहुत खूबसूरत रचनाएं है आपकी ... यदि हो सके तो पूर्व में प्रकाशित रचनायों को पुनः हिंदी में प्रकाशित करें ... पढने में सहूलियत होगी ....
    स्वागत है आपका ब्लॉगजगत और मेरी google reader list में

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