Monday, June 8, 2009

उफ़ यह तन्हाई!

मार ही डालेगी अपने नींदों की कसम
कैसी बला की गर्मी है
और फिर भी तुम्हारी याद सुबह की ओस की बूंदों सी लगे है
फिर से देर तक ढली रात के अंधेरे में
सुनसान सी रौशनी में
कुत्तों के भौंकने की आवाज़
जैसे नौ बजे फैक्ट्री की साइरन
मेरे यादों के खजाने में दफन जैसे
इस दहकती गर्मी में पसीने से तर बतर
तुन्हारी यादें सहेज कर रखीं हैं
तह दर तह बिल्कुल संभाल कर
उसी तरह जैसे मैंने चाँद से गिरे
तुम्हारे आंसू संजोये थे
बस एक ख्वाब था वह भी पसीने से भीगा
उफ़ यह तन्हाई जैसे मार ही डालेगी
गर्मी भी अब दुश्मन लग रही है
तुम्हारे बगैर सब कितना बेमानी
कितना खाली।

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