Tuesday, December 29, 2009

देखो यही है दुनिया

खट्टे मीठे
कुछ कच्चे कुछ पक्के
बिना दांत के
चबाये कच्चा गोश्त
फटे आसमान को ताकता
एक चील
निगलने को आतुर
एक मगरमच्छ।
ऐसे में जीना
आसान है क्या?

Sunday, December 27, 2009

यहाँ से....

कभी सोचा था
बनेगा एक आशियाँ
कभी कि थी हरकत भी
लेकिन ठहर गया सब मंज़र वहीँ
सब वीरान
वहां से यहाँ तक।

Thursday, December 24, 2009

मैंने सुना है ....

इस रात के पिछवाड़े में
एक शाम छुपी सी हंस रही है
एक सुबह का करती हुई इंतज़ार
उफ़ यह बेक़रारी
और रात की निर्दोष उम्मीद.

Wednesday, December 23, 2009

किसने कहा

आज जब मैं चुप हूँ
तो यह आवाज़ मुझे तरसा रही है
इस सन्नाटे में एक लंबी सी गूँज
कुछ कहती है
ना जाने क्या
सुनूं तो
किसने कहा.

Wednesday, December 16, 2009

एक कविता ऐसी भी

शुन्य की तलाश में
अंक जोड़ता रहा हूँ मैं
जैसे तकते हुए आसमान
मैं धरती नापता रहा।
उफ़ यह नादानी।

Tuesday, December 15, 2009

एक नुस्खा यह भी

चूभाओ सुई तो निकलेगा खून
मेरे अतीत की परछाईयाँ
मेरे वजूद से खून बनकर
निकले और बोले
सुनो, कौन हूँ मैं?

Monday, December 14, 2009

फूल और कांटे

चुभे कांटे तो पता लगा
फूलों का अस्तित्व भी
लगी चोट तो हुआ यह एहसास भी
चलो ज़िंदा हैं हम अभी।
आओ हरा करें चोटों को
कि बाकी रहे
यह एहसास -ऐ कमतरी
और हम साँस लेने कि
साज़िश करते रहें.

Friday, December 11, 2009

सिल दो मेरे होंठ

तुम्हे शिकायत है कि मैं बोलता बहुत हूँ
मुझे ज़माने की चुप्पी से परेशानी है
तुम्हे चाहिए एक पुरा इलाका
मेरे लिए तो एक गज भी बहुत है
चलो बाँट लेते हैं अपनी तमन्नाएँ
कुछ तुम ले जाओ अपने दामन में समेटे
कुछ दफना देता हूँ कि कोई पेड़ उग आए। ।

Thursday, December 10, 2009

फटे पाँव

देखो अपने फटे पाँव
जिन पर पड़े हैं पत्थरों के निशाँ
देखो तो खून हे धब्बे भी हैं वहां
पैरों पर थकान की कहानियाँ
मेरे अतीत को मेरे आज से जोडती हैं
उनके हुस्न को मेरा सलाम।

Wednesday, December 9, 2009

लोहा और मोम

लोहा और मोम
कितने समान कितने अलग
एक पिघल कर काम आए
दूजा काम आए तो पिघले
एक दुविधा
किस की तरह बनूँ?

Tuesday, December 8, 2009

हद है!

उसने चौंक कर कहा
मेरी आवाज़ क्यों गूंजती है
उस गूंजती आवाज़ ने हंस कर कहा
देखो तुम्हारी अस्मिता हूँ मैं
पकड़ो मेरा हाथ
देखो तो कितनी ठण्ड है यहाँ.

Sunday, December 6, 2009

सुनो

जो तुमने कहा
मैंने सुना
अब तुम सुनो
एक अधूरी कहानी
एक अनसुनी दास्तान
मेरे पास तो यही है
कहाँ से लाऊँ तकमील- ऐ-फ़साना?

Saturday, December 5, 2009

एक गिलहरी

देख कर अकेला खाते मुझे
दस पाँच गिलहरियाँ भी
शेर हो गयीं
मेरे रोटी के टुकड़े मेरे हाथों से छीन ले गयीं
और मैं भयभीत सा असहाय, अपलक देखता ही रहा.

Friday, December 4, 2009

ऐ बेफिक्र मन

ऐ मेरे बेफिक्र मन
जरा थम कर सुनो
मेरी कहानी
उसकी ज़ुबानी
फिर कहना
रोये की नही।
मैं तो हंसता रहा
वोह तो रोते रहे
अपनी अपनी किस्मत
अपनी अपनी हदें
कहाँ तक दिखाएँ
आपको अपने ज़ख्म।
चलो बाँट लेते हैं
कुछ अपनी दुआएं
कुछ तुम ले जाओ
कुछ हम साथ लायें।

Thursday, December 3, 2009

लम्बी कहानी

एक छोटी सी कहानी
मैंने कही
तुमने सुनी
लंबी हो गयी .

Sunday, November 29, 2009

उनकी मजबूरी

जो प्यासे हैं
वे कुछ भी पी लेंगे
उनसे ना पूछो पानी की जाति
कभी जाड़े की धुप से उसका रंग पूछा है
तो पानी से ही क्यों?
मेरी तेरी उनकी मजबूरी
भूख और प्यास की है
पानी के रंग से अपना क्या वास्ता?

Saturday, November 28, 2009

एक लकड़ी का धुआं

सूखी एक लकड़ी
पाने को गर्मी , जला ली मैंने
कहीं से एक बन्दर भी आ गया हाथ सेंकने
और पल भर बाद
आ गए कुछ और नारेबाजी वाले
उन्होंने भी अपने जेब सेंके.

Friday, November 27, 2009

कहा तो मैंने है

एक कहानी जो तुमने लिखी
और मैंने पढ़ी
मेरा हश्र मुझे मालूम हो गया फिर भी
थाम कर तुम्हारा दामन
मैं सोचता हूँ
क्या यही सच है ?

टूटा हुआ सपना

मैं चुन रहा हूँ
सपनों से रक्तरंजित कुछ पुराने घाव
आओ तुम भी चुन लो
न जाने कब काम आ जाए तुम्हारे
मैं तो बेच रहा हूँ
सस्ते हैं ।
घाव दुःख तो देते हैं
महंगे तो होते नहीं.


Tuesday, November 24, 2009

देखो यह भी एक कहानी है

ज़रा मुड़ो तो जानो
कि पीछे कैसी खाई थी
जो तुम अनजाने में लांघ आए
आज जो भी हैं हम
अपनी न होने वाली दुर्घटनाओं की दुआ से हैं
हम है यही सबूत है
कि हम हैं.

काँटों का ताज

मेरे एक दोस्त ने कहा
सुनो तो बुलबुल की तान
सुनो तो क्या कह रहा है यह
लगता है सुंदर तान की तय्यारी कर रहा है
मैंने कहा
ऐसा नही है भाई
वह तो काँटों से लहू लुहान अपने बदन
को दिखा दिखा कर रो रहा है.

Saturday, November 21, 2009

मैं और मेरा गधा

एक रोज एक गधे के रोने की आवाज़ आई
गधा बहुत दुखी था
उसे किस ने गधे की तरह कामचोर बताया था
उसे तब मालूम हुआ था
कि वह गधा और कामचोर था.

न जाने क्यूँ

एक फूल ने झुक कर पूच्छा
क्यूँ भाई कांटे
इतना मुलायम नरम क्यों हो रहे हो?
कांटाकुछ दुविधा में पड़ कर धीरे से बोला
देखो पुलिस वाले ए थे
कह गए हैं
ज़रा नरम ही रहना
वी आयी पी मूवेमेंट है
कोई परेशानी न होए

Wednesday, November 18, 2009

लोहे की कील

लकड़ी की बनाता नाव
लिएहाथ में कुल्हाड़ी
ढूंढता रहा उचित लकडियाँ
काटता रहा कुछ से कुछ
मगर जोड़ने को मिले नही
लोहे के कील
किस से मांगूं?

एक गन्दी सी नदी

मेरे ख्यालों में
आई थी कल
एक बदबू भरी बयार
पलट कर देखा
एक संकरी सी नाली
किसी ने कहा यमुना है भाई।
माखन चोर वाली यमुना?

एक परी मेरी दोस्त है

आसमान से उतरी
स्वर्ग को भूल कर
अपने सपनों में मगन
बनी मेरी दोस्त
मैं क्या कहूं?

Monday, November 16, 2009

एक चिड़िया

एक चिड़िया
बड़ा आसमान
छोटे से पंख
बड़े अरमान
उडती रही
देर तक.

Saturday, November 14, 2009

सर्द हवा

सर्द मौसम है
दिन भर दबे रजाई में
चुस्की लें चाय की और करे गंगा में बढती गन्दगी के बारे में
सुने मेहदी हसन की वही
संजीदा सी ग़ज़ल रंजिश ही सही
और हो जायें जाड़ेकी धुप को तरसता एक दम निकम्मा।

Friday, November 13, 2009

में में में

एक बकरी मिमियाती
हदस में अधिक घास खाती
प्यास से तड़पती
बेचारी को क्या पता
कब वोह किसी के डिनर प्लेट पर सज जाए
और कीजिये आत्मा परमात्मा पर चर्चा।

इस शाम के बाद

एक सुबह ने पूछा मुझसे
कब तक सूरज ढलेगा
कब रात होगी
कब मैं सो जाऊंगा?
मैं क्या बताता
अब से थोडी ही देर में
सारा रोमांस ढल जाएगा
रात गहरी हो जायेगी
फी करना इंतज़ार सुबह की रौशनी का।

Wednesday, November 11, 2009

एक कुत्ते की यात्रा

सड़क पर एक कुत्ता दूसरे कुत्ते से बोला

कहाँ जा रहे हो

दूसरा कुत्ता चुपचाप चलता रहा

पहले ने फिर पूछा

बताओ

कहाँ जा रहे हो

कुत्ते मैं ने मुड़ कर

और बोला

धोबी का कुत्ता हूँ कहाँ जाऊंगा ?
मैं ने कुछ नही कहा
सब समझ गया।

Sunday, November 8, 2009

गाड़ी में पेट्रोल नही है तो क्या हुआ?

एक राज नेता ने पूछा
ड्राईवर गाड़ी क्यों नही चलाते
ड्राईवर बोला सर गाड़ी में पेट्रोल डालने को पैसे नही हैं सरकार के पास
नेता चोंके
ऐसा कैसे हो सकता है
कल ही तो मैंने पाँच सौ करोड़ रुपये
स्विस बैंक में जमा करवाए हैं।

कहानी एक भूत की

एक भूत था बहुत उदास
सोचता था कैसा है यह माहौल यहाँ का
हर आदमी डरावना लगता है
सीधे उसके पैर मगर उलटी उनकी चाल
हम तो मारों का खून पीते हैं
यह तो जिंदा को खा जाते हैं
इतने दिन हो गए भूत हुए हमें
अभी तक स्विस अकाउंट क्यों नही खुला हमारा?

एक परी कथा

एक जंगल में
एक परी खो गई
उसने बड़ी तलाश कर एक खुरपी निकाली
लगी खोदने और मिला उसे गडा हुआ खजाना
तब उसे मालूम हुआ
क्यूँ इन्द्र भगवान रोज तडके जंगल की सैर को जाते हैं.

सोचो तो

गाय ने पूछा बकरी से
क्यूँ तुम ही हुए जिबह हर बात पे यहाँ
बकरी ने मुह झुका कर कहा
भली गाय, तुम हिंदू हो
इस लिए कत्ल से बच गई।
गर्व से कहो हम हिंदू हैं.

Friday, November 6, 2009

भूरे साहब से एक मुलाक़ात

सरकार ने तरेर कर कहा
बोलो?
घरीब आदमी घबराया
कुछ नही हुज़ूर
बस यूँ ही
सरकार सोचते हुए से बोले
'ह्म्म्म्म'
और कलेक्टर सब से मुलाक़ात ख़तम हो गई.

कितने मोड़ और?

राहों में नही है

अब और कोई मोड़

सुना है इस सिम्त अब राहें हैं बेगानी

न हो छाँव तो धुप ही सही

मुझे कहाँ अब एहसास है अब जीने के एहसास का

एक तुम हो तो है बाकी जश्ने बहारा

एक तुम हो तो है मेरे लबों पे कुछ थिरकन

एक सूरज की रौशनी में मैं हूँ।






Thursday, November 5, 2009

बहुत दिन हुए

एक अरसा बीता है तुमसे
दो चार हुए
एक तनहा सा दिल
एक भीड़ का सा एहसास।
तालाब का पानी भी कम पड़ रहा है
मेरे अरमानो के गीले होने के लिए
सूखे पत्तों पर गिरे भी ओस की बूँदें तो क्या कीजे
समेट लीजे मेरे दर्द अपनी अंजुली में
मगर फिर भी यह याद रहे
मेरे वजूद में लगे हैं टाँके
मेरे होश को ले गया कोई चील अपने चोंच में दबा कर
चलो इन्ही ख्यालो
को दे कर परवाज़
भर कर बाँहों में एक सारा आसमान
और मुट्ठी में भरी हो आग
चलो छु कर देखते हैं इस आग की तासीर।

Friday, September 11, 2009

सफरनामा

एक सफरनामा लिख रहा हूँ मैं, ज़रा पढ़ कर तो बताओ
मेरे बारे में उन सफों में क्या लिखा है।
एक लम्बी सी ज़िन्दगी की कहानी कैसे लिखते हैं कुछ चंद पन्नो में
मेरा तो दिल घबराता है कि कहाँ से शुरू करुँ
इतनी सी बातें, इतने फ़साने, और इतनी रुस्वाईयां,
क्या क्या कहूं, क्या क्या लिखूं, किस से कहू, किस को सुनाऊँ।
ज़रा पास बैठो, और बताओ कि क्या लिखते हैं एक लम्बी कहानी में
कुछ सच, कुछ झूठ , कुछ सुनी, कुछ सुनायी और कुछ बस केवल ख्याली।
एक लम्बी सी दास्तान, एक बेमानी फ़साना, एक बेसुरा सा राग,
मेरे दोस्त बताओ क्या यही सफरनामा होता है?

Saturday, September 5, 2009

मैं किसी शाम का आगाज़ हूँ

आज जब याद आई मुझे अपनी किस्मत की बेवफाई
बहुत रोया मैं, बहुत देर रात तक।
क्यों मेरे दामन में नही गिरे महकते फूल
लिए कांटे हाथों में, मैं सोचता रहा देर रात तक।
मेरी परछायी भी रोती रही लिपट कर मुझसे
लिए अपने ख्वाब अपने हाथों में मैं भी रोता रहा देर रात तक।
मैं किसी शाम का आगाज़ हूँ , मुझे रौशनी न दिखाओ यारों
कहकहे तुम्हे मुबारक, मैं तो रोता रहा फिर देर रात तक.

Monday, August 3, 2009

एक हसरत थी

मेरी एक उम्र गुजर गई है यह सोचते हुए
क्या मेरे सवाल का कोई जवाब है यारों।
यह तो गनीमत है
यहाँ पानी नही मिलता
वरना क्या बात है कि यहाँ डूबता नहीं है यारों।
कहने को तो यहाँ है बारिश का मौसम
मग क्या बात है कि यहाँ बदल नही आते यारों।
मेरे सवालों का यह जवाब तो नही, मगर
माना कि मेरे सवालों के पैर नहीं हैं यारों।
तुम्हारे जवाब मेरे सवाल के मानी नही बदल सकते
फिर भी इस तरह तो बात कि खाल मत उतारो यारों।
कहने को जब कुछ नही हो तो मेरे पास बैठो
क्या पता मेरे पास से गुजर जाए कहीं वक्त यारों।
हर एक लम्हे का अपना एक सफरनामा होता है
तुम जहाँ ठहरे वहीँ पर एक सफर शुरू होता है यारों।




Thursday, July 30, 2009

कहने को जब कुछ न हो

कैसा लगता है
जब शब्द छोड़ने लगे हो मानी
जब निगाहों में नही हो कुछ भी मुस्कान बाकी
जब मेरे हाथों में ना हो कोई भी जुम्बिश
मैं अपने आप से लगूं डरने
मेरे माजी के कुछ सवाल मुझसे मेरे
भविष्य का हाल पूछें
मेरे होने ना होने का और क्या मतलब
अपने आप से ही खफा हैं आज कल कई लोग
कई लोग तो खुश होना जानते ही नही।
पंक्चर साइकिल की तरह
बिना सवारी के चलती
सवार ही खींचता है सावारी
लफ्ज़ ही ढूँढ़ते है मानी
अब वाकया क्या सुनाएँ
मानी ही बदल रहे हैं लफ्ज़ ख़ुद ही
मेरी सोच पर लगा है पहरा ।
अब कुछ कहें तो
कहने पर भी लगेगा साजिश का इल्जाम
लोग चुप रहने पर भी साजिश का गुमान करते हैं
फिर बोलने पर तो
निकलेंगी तलवारें
काटेंगे सर
बहेंगी अवसाद की नदियाँ
ठहरेंगी जो सब हैं मेरी सोच की परियाँ
मेरे ख्वाब मेरे होने का प्रमाण देते हैं
मैं जिंदा हूँ
इस लिए देखता हूँ ख्वाब
देता हूँ गालियाँ
कहता हूँ शेर और लगते हैं आपको लातीफे।
मेरी पहचान पर लगे हैं ताले
मेरी सोच को कोई ले गया है
चलो अच्छा ही हुआ है
जब कहने को हो कुछ भी नही
तो बेमानी बेस्वाद कविता से तो रोना ही बेहतर है.


















Thursday, July 23, 2009

कैसे कैसे लोग पुराने ......

आज याद आ रहे हैं
वे लोग जो मिले और बिछड़ गए
किन किन राहों से गुजरे हम
किन किन मोडों पर साथ मुड़े हम
फिर किन राहों पर चले साथ
और फिर यादों के साथ चले
एक एक लम्हा याद मुझे है
एक एक मुद्दा जो उठा था सफर में
आज बना है महाकाव्य सा
जिसके नायक बीते पल हैं
जिसकी नायिका प्रकृति है
तुम में मुझ में
रची बसी है
सुगंध किसी वन्य पुष्प की
जो है सबकी
धरा धन्य से आप्लावित
मनु की धरती
श्रद्धा की संतति
कैसे कैसे लोग पुराने
आज सहसा स्मृति पटल पर
आ कर रुलवाते हैं
कैसे कसी त्याग तुम्हारे
की आज हम जीते हैं।
कहो एक कहानी जो हो लम्बी सी
इस धरती से और गगन से
और मानव चेतना से भी लम्बी
चलो कहें एक कथा पुरानी
सुनी सुनायी, कही कहायी
जानी पहचानी
मेरी तुम्हारी
हम सब की एक कथा है।

Tuesday, July 21, 2009

अभी तो देर है

इतनी मुद्दत बाद तो आए हो
जरा बैठो
जरा मुस्कुराओ
कभी उसकी कभी किसकी बात करो
चलो याद करते हैं बीता जमाना
जब तुम छू लेते थे पर्वत की चोटी को
जब हम हँसते थे तो बरसते थे बादल
चलो एक बार
जरा जोर से हँसते हैं
ऐसी हँसी की हिल जायें दीवारें
और भर आयें आँखें
मेरे दीवानेपन का कोई जवाब है?

Thursday, July 16, 2009

हो गई है इन्तहा, अब बस भी करो!

खून बहे कितना
आख़िर बदन में खून होता ही कितना है
कितने तरदुद से मिलता है यह हाढ़ पर चढा मांस;
कितनी मुद्दत बाद देखी है मैंने अपने आंखों से मुस्कान
तुम्हारे आंखों में रच बस गई उस मुस्कान की
एक नई कहानी
मेरे से कोई मुख्तलिफ तो नहीं
लगता है जैसे बार बार सुना सुना
किसी धुनिये की टंकार।
या फिर किसी रोज बैठते हैं किसी छत की मुंडेर पर
तकते हुए आते, बैठते, गपियाते
अपने जवानी के दिनों की लम्बी गुफ्तगू
जैसे मेरे बदन में तो अभी भी मौजूद है तुम्हारी निशानियाँ
कुछ गम, कुछ गुस्सा एंड उअर ढेर सारा प्यार।
अब और ना सुनाओ
मैं सुन नहीं सकता
किस्सी और की खुशियों की दास्तां
मेरी कहानी से बिल्कुल अलहदा।
मेरे तुम्हारे घरो के फासले की तरह
लम्बी ही होती जाती है
अब बस भी करो
कितने और इम्तेहान
और कितने नतीजे
बीज बोए थे बड़े प्यार से
अब फल तो खा लेने दीजिये ।


Monday, July 13, 2009

कुछ तो कहो

कुछ तो कहो
ऐसे तो चुप न रहो
आदमी की जात हो
न बात तो सही, कुछ अफवाह ही सही।

गुलमोहर बोलो तो!

फिर से आज तेज हवा चलने लगी है
फिर से काले बदल छा रहे हैं
दूर क्षितिज पर लंबे अन्तराल के स्वर
जैसे समंदर के लहरों पर फैल जाता मेरा अस्तित्व
आज फिर तेज धुप के बाद तेज हवा चल रही है
न जाने काया होने वाला है!
मैं उस दिन की ही तरह आज भी
उसी गुलमोहर के नीचे बैठा हूँ
याद है? वह दिन जब मैं जी भर कर रोया था?
याद है की तुम चुप चाप बस सुनते रहे थे
मेरा रोना
किए आँखें बंद
जैसे दादी माँ की कोई कहानी हो
पूछो तो जरा गुलमोहर से
कैसे बीते थे वे पल
मेरे साथ वह भी तो रोया था
बोल गुलमोहर बोलो
आज चुप रह गए तो अनर्थ हो जायेगा
और शायद कुछ भी न हो ।
हवा के चलने की आवाज़ डराने लगी है मुझे
लगता है गुलमोहर कुछ भी नही बोलेगा
क्या पता तुमने खरीद लिया हो उसे
जब मौसम और ईमान बिक सकते हैं
तो गुलमोहर क्यों नही?
फिर भी अगर तुम्हे गुलमोहर कुछ कहे
तो सुन लेना
शायद उसे मेरे हाल पर तरस ही आ जाए।
सुनते हो दुष्यंत?

Sunday, July 12, 2009

पहली मंजिल

तुम्हारे यादों के साये तले गुलाबों की क्यारियां बना दी है मैंने
उनमे खुशबू भी है और रंग भी
सुन्दरता भी है और
चुभनेवाले कांटे भी
तुम भी हो और मैं भी
बहुत सी सुरीली यादें
कुछ नमकीन से ख्वाब
खट्टे मीठे तुम्हारे ख्याल
मैं अपने साये से पूछता हूँ
बताओ यह कौन सा समंदर है
जिसका पानी मीठा है
यह कैसी बारिश है
जिसमे पानी तो गिरता नही।
मैं कुछ सोच रहा हूँ
इन्ही सोचों में डूबा
अकस्मात ही
जैसे बिजली कड़कती है
मैं उठ कर दौड़ पड़ता हूँ
जैसे पकड़ लूँगा मैं चमकती बिजली कों
बढ़ा कर हाथ और
भर जाऊंगा रौशनी से
इसी ख्याल से पूरा ही जल गया था मैं
क्या कोई इस तरह बिजली से खेलता है?





Saturday, July 11, 2009

एक परिचित सा दिवास्वप्न

यूँ ही
औचक ही
जैसे कोई याद आया हो
दरवाजे पर ना पड़ी दस्तक की तरह
मुरझाये हुए फूलों की क्यारी
मेरे अतीत से विरोपित कुछ दबे से स्वर
आज व्यथित रूप से
मेरे लिए नए प्रतिबिम्ब बना रहे हैं
कुछ गोल कुछ चौकोर
मगर ढेर सारे टेढ़े मेढ़े उनींदे से स्वर
मेरे पास बैठ कर राग अडाना में माँ काली का भजन गा रहे हैं
यह इतना शोर क्यों है
यह क्या हो रहा है
क्यों मैं बैठ कर इस कोने में
इतना आह्लादित हो रहा हूँ
क्या पता कोई मुझे पागल ही ना समझ ले।

Wednesday, July 8, 2009

जब कुछ नया न हो कहने को

कहते हैं आज फिर वही पुरानी सी बात
तुमने सुनी है कई बार, मगर
फिर भी आज कहने को दिल करता है
चलो शुरू करते हैं उन्ही पुरानी बातों का सिलसिला
जाने पहचाने अफसानों का कारवां
पुरानी सड़कों पर चलना कितना सुरक्षित लगता है
दिल को अपने दामन में थामे
अपनी यादों के गर्म लिहाफ में बंद
चले जा रहे जानीहुई राहों पर
जैसे पढता हो कोई सालों पुराने
अब पीले पड़ गए ख़त
जो मैंने लिखे थे तुम्हे पर कभी भेजा नही था
मेरी यादों की विरासत का अटूट हिस्सा
मेरी सोच का वारिस
सब कितना अच्छा लगता है
जैसे समोसे जलेबी का नाश्ता
जैसे नुक्कड़ पर नाई की दुकान पर बाल कटवाना
और सुनना विविध भारती पर मुकेश के गाने
फिर वही बातें
फिर वही राहें
जानी हुई राहों के अनजान सफर
तुम्हारे हाथों की खुशबू आज भी चंपा में बसी है
आज भी सुन सकता हूँ मैं तुम्हारे सुरीले तान
आज भी देख सकता हूँ मैं तुम्हारे चश्मे नम
आज भी दिल भरी हो जाता है
आज भी सब वैसा ही लगता है
.......................
चलो उसी नुक्कड़ की दूकान
पर बैठ कर
मिनाक्षी शेषाद्री की तेल से पुती पोस्टर को तकते
बस बिना कुछ किए बिताते हैं दिन
अब ऐसा कहाँ होता है।


Saturday, July 4, 2009

मैं जी रहा हूँ

मैं जी रहा हूँ
यही एक बात सच है
क्योंकि यही सच है
क्योंकि सच के हाथ तो होते हैं मगर
पैर नही होते
उसके सिर्फ़ एक चेहरा होता है
जो हर किसी को अलहदा दिखता है
मेरा सच और एक तुम्हारा सच
यही कहा था ना उसने जाने के वक्त
और कितना सिमट गया था मैं
जैसे कछुआ सिमट जाता है अपने कवच में
अकस्मात निकल आए थे आंसू मेरे
कटा था मेरा वजूद कतरा कतरा
कैसे भूल सकता हूँ में एक सच को
एक बीता हुआ सच
मगर फिर भी सच
सच कि तुम तुम हो
और मैं मैं
सच यह कि मैं तुम्हारे करीब से गुजरा हुआ एक कड़वी याद हूँ
सच यह कि तुम एक अभिसारिका सी
मेरे अवसाद के क्षणों
की अद्भुत स्मृति
मरे अन्त्रनतम में रची बसी
जैसे तुम्हारे बालों में चमेली की महक
जैसे तुम्हारे मुस्कान में चाँद कि प्रतीति
मैं हर बात में कई सच तलाशता हूँ
क्योंकि हर सच के कई पहलू होते हैं
जैसे मेरा सच और तुम्हारा सच
और कुछ जो न तुम्हारा सच न मेरा सच
बस वह सिर्फ़ सच होता है
कड़वा और सटीक
न मेरा न तुम्हारा
सिर्फ़ सद्चितानंद है।





Saturday, June 27, 2009

मुझे सोचने तो दो

बड़ा थका हुआ हूँ मैं, ज़रा सोचने तो दो
किस सिम्त जायेगी यह बहार, ज़रा देखने तो दो।
पानी का बहाव देख कर कुछ ऐसा लगता है
पानी की तासीर क्या है, हाथ जरा डालने तो दो।
धुप है तेज मगर मेरी किस्मत तो देखो
पानी से जल गया हाथ, मुझे बोलने तो दो।
कैसी है बंदिश यहाँ सोचने पर दोस्त
जम्हूरियत की बात पर जरा बोलने तो दो।
जब लगेगी रोक सोचने और बोलने पर तो मर जाएगा विरोध
इसी बात पर मुझे कुछ तार जोड़ने तो दो।
मेरे नसीब में न सही, किसी और का हासिल ही सही
किसी का भी हो, कुछ मजा लेने तो दो।
मेरे रकीब मेरे हबीब तो बनो तो दर्द कम हो जाएगा
किसी और सिम्त यह रास्ता जाता नही है दोस्त.

Monday, June 22, 2009

हद है...

बारिश भी यहाँ छुप कर बरसती है
लोग भी यहाँ बहुत अनजाने से लगते हैं
यह कैसा शहर है यारों
यहाँ हर इंसान पर दाग लगा लगता है।
कल जब मैं सड़क पर निकला तो ऐसा लगा
ज्यों बादल का दम घूट रहा है, और
लगा जैसे टुकड़े टुकड़े होंगे आसमान के अब
तब मैंने भी अपनी जेब में टटोला अपने वजूद को।

दस्ते सबा में जैसे कोई ठहर गया को अपना बन कर
जैसे महताब की चांदनी बन कर मेहरबान
सहला रही हो मेरे बदन पर पड़े घाव कों
ज्यों jसावन की ठंडी बयार सहलाती है मेरे मन कों।

पहली बारिश, पहला नशा, पहला प्यार
सब याद रहते हैं
जैसे तुंहारा आना, जैसे तुम्हारा जाना
जी तुम्हारा उठना, जैसे तुम्हारा बैठना।







Sunday, June 14, 2009

सफ़ेद हाथी का दुःख

बेचारा सफ़ेद हाथी
क्यों इस कदर बदनाम है
हर निकम्मे को सफ़ेद हाथी ही कहते हैं
न जाने क्यों हर आदमी बेताब है उसे नाम देने को
सही ही वह सोचता है
क्यों काला हाथी नही पाता है बदनामी
वह भी तो हाथी ही है
मनुष्य की जाती में तो कला रंग ही शोषित हुआ है
रंग भेद पर किताबें लिखी जाती रही हैं
और भारत में तो गोरे रंग को कितना सम्मान मिला है
गोरे रंग पर इतना गुमान ना कर जैसे गीत लिखे जाते रहे हैं
काले रंग को सफ़ेद करने के क्रीम बिकते हैं
काली या सांवली लड़की की शादी में आती हैं दिक्कतें
फिर क्यों मुझ सफ़ेद हाथी को लताड़ते हो
क्यों मुझे नामों से पुकारते हो
मुझे भी गोरों की तरह सम्मान मिलना चाहिए
मुझे भी एक बहले नाम से पुकारना चाहिए
क्यों मैं ही हिकारत भरी ज़िन्दगी जीने को मजबूर हूँ
सफ़ेद हाथियों के भी अपने अधिकार और सम्मान हैं
कब हमें अपनी उचित जगह मिलेगी?

Saturday, June 13, 2009

सड़क नापती है मेरा हाथ

दिल्ली की सड़कें और उन पर चलने वाले लोग
जैसे किसी भयावह सपने से आतंकित
दौड़ते भागते, लेते हैं साँस दम तोड़
एक पर एक गिरते
एक पर एक चढ़ते
कूदते फांदते जैसे न हो कर मनुष्य हो गए हों जंगली घोडे
हर कोई है हांफता गुर्राता
हर कोई बताता है अपनी रिश्तों की कुंडली
परेशान सा पुलिस वाला किंचित हतप्रभ
बजता सीटियाँ
सुनता है कोई नहीं
आयें इस दिल्ली महानगरी में आपका स्वागत है।

Monday, June 8, 2009

उफ़ यह तन्हाई!

मार ही डालेगी अपने नींदों की कसम
कैसी बला की गर्मी है
और फिर भी तुम्हारी याद सुबह की ओस की बूंदों सी लगे है
फिर से देर तक ढली रात के अंधेरे में
सुनसान सी रौशनी में
कुत्तों के भौंकने की आवाज़
जैसे नौ बजे फैक्ट्री की साइरन
मेरे यादों के खजाने में दफन जैसे
इस दहकती गर्मी में पसीने से तर बतर
तुन्हारी यादें सहेज कर रखीं हैं
तह दर तह बिल्कुल संभाल कर
उसी तरह जैसे मैंने चाँद से गिरे
तुम्हारे आंसू संजोये थे
बस एक ख्वाब था वह भी पसीने से भीगा
उफ़ यह तन्हाई जैसे मार ही डालेगी
गर्मी भी अब दुश्मन लग रही है
तुम्हारे बगैर सब कितना बेमानी
कितना खाली।

Saturday, June 6, 2009

मेरे दोस्त तुम परेशान हो क्यों

रात परेशान है तुम्हारे लिए
मगर तुम परेशान हो न जाने किसके लिए।
एक आदमी को सुना था गुस्सा बहुत आता था
उस आदमी की जान तुम में चली गई लगता है।
ना मुझे चाहिए चाँद तारे, न ढेर सारे सिक्के जवाहरात
बस एक लफ्ज़ मीठा बोलो तो क्या जाएगा किसी का।
आज लगता है बारिश बहुत जोरों से पड़ेगी
आज तो तुम भर से बैठे हो।
चलो बाँट लेते है आज का ख़राब मौसम
कुछ तुम रो लो, कुछ मैं रो लूँ, आसमान को फटने की फिर ज़रूरत नही पड़ेगी।

आदमी किस्मत को क्यों रोता है

आदमी किस्मत को क्यों रोता है
क्या है औरों के पास की उसे खलता है।
हर सिम्त एक ही रोना सुनाईदेता है
पैसा होता तो कितना अच्छा होता है।
खाने हो ना रोटी तो क्या हुआ
उस आदमी के पास कितना पैसा है।
कभी मुझे ऐसा क्यों लगता है
न हो खुशी मगर हो पैसा तो सब अच्छा है।
खुशियों का क्या है यह तो आनीजानी है
यह तो पैसा है जो साथ निभाता है.

Friday, May 15, 2009

एक लड़की

एक लड़की ने कहा है कि वह आयेगी
जब सूरज झुरमुटों के पीछे छुप जायेगा
जब रात की काली चादर क्षितिज पर औंधे मुंह लेता होगा
जब मेरे आंखों में तुम्हारा नशा रच बस जाएगा
जब गुलमोहर के पेड़ तले मेरे सपने रंगीन ख्वाब समेटेंगे
मैं चुप चाप ले कर हरी घास हाथों में
जैसे तुम्हारे काले बाल
जैसे मेरी यादों के गुबार
जैसे मेरी दोस्ती पर लगा इल्जाम
जैसे लगा था चाँद पर भी दाग
जैसे सीता भी गुज़री थी अग्नि परीक्षा से
मैं भी इन टेढ़े मेढ़े रास्तों के मुंडेर पर
थामे अपने भाग्य की लकीरें
सोचता हूँ
क्यों नहीं मैं आज के गर्भ में बैठे कल की खुशबू
पीता हूँ अपनी आंखों से
जैसे देर तक इंतज़ार मैं बैठा कोई पथिक ताकता है
सूनी अनजानी राहों को।

एक नई ग़ज़ल

इस शाम से शुरू हुई एक नई दास्ताँ
कुछ हरी कुछ पीली, एक नई दास्ताँ।
--------
कहना नही कुछ भी अभी, सुनना नही तुमसे कोई
हर शाम को, करके शुरू एक नई दास्ताँ।
-----------
मेरे हुजुर में होता है सब, एक नया तमाशा हर दिन
सोचा किए, देखा किए, हर की नई दास्ताँ
--------------
मेरा नही अपना कोई, मेरा नही सपना कोई
हर शाम फिर वही भूली हुई सी दास्ताँ
-----------
जंगल भी है, बगीचे भी हैं, फूलों से भरी वादी भी है
इस सहरा में, तुमसे जुड़ी महकते हैं कई दास्ताँ ।
--------
चलने को न हों राहे मगर, सोने को है माहौल सही
नींद भी आती है खूब, जब जब सुनी वही दास्ताँ।

Wednesday, May 13, 2009

एक गोरी दोस्त के नाम

कभी मेरे लिए झूठ बोल कर देखा है
कभी मेरे लिखे लफ्ज़ पढ़ कर बेमानी तारीफ़ की ही
मेरी एक गोरी दोस्त
मुझे खुश करती है,
जैसे बचपन में कोई लड़की
बारिश के पानी में कागज़ के नाव बना कर देती थी बहाने को।
खुश होना भी कितना आसान है
कुछ कहो झूठ भी मगर ऐतमाद से
और दिल है की बल्लियों उछालने लगता है
मेरे दोस्त यूँ ना मेरी कमजोरियों पर पर्दा डालो
मैं बुझी राख हूँ
कहाँ यहाँ है आग जिसपर तरानो की गर्मी आए
कहाँ इसमे कोई लौ की कोई रौशनी हो
मैं बुझी शमा हूँ
अब किसी शरारे की कोई उम्मीद नही बाक़ी
बस लम्बी एक रात है
बस एक लम्बी काली रात
उस तरफ़ है कोई रौशनी
क्या पता।


मेरे हसीं ख्वाब

किसी रात के गहरे अन्धकार में
मैं सुनता हूँ सन्नाटों की चीख पुकार
लोग सुन कर भी सो रहे होते हैं
मगर मैं पुरे होश में
नींद से कोसों दूर
अपनी यादों के साये में
जब काला अन्धकार पी रहा होता हूँ
तब तुम बहुत याद आते हो।
मेरी ज़रूरतों का ताना बना
मेरी मजबूरियों का टोकरा
तुमसे अनजानी
मुझसे जनम जनम का रिश्ता
मेरे आँगन जैसे बना लिए अपना बसेरा
बस मेरे लिए ही बनी हो जैसे
मेरे हसीं ख्वाब
क्यूँ हो गए हो मुझसे दूर
क्यों मैं पराया हो गया हूँ
आ भी जाओ की मैं अब भी
वही हूँ
जिस से कभी थी आशना
जिस से कभी था दोस्तों सा प्यार
मैं अब भी वही प्यारा सा दोस्त हूँ तुम्हारा।

Monday, May 11, 2009

एक आदमी का मन

अजीब है यह अंतहीन सफर
मेरे हाथ से निकल कर मेरे आंखों में समां जाती है सड़के
मेरे बालों की नमी से
कहते है की
उनके ख्यालों की फसल उगती है
मेरे आंसू से सिचाई होती है
मेरे उंगलीयोंके पोरों से निकल कर मेरा अस्तित्व
किसी गैर की बन जाती है संपत्ति।
क्या मैं इस चक्रव्यूह को समझ सकता हूँ?
नहीं मैं इस से बाहर निकलना नहीं चाहता
न ही मैं इसे तोड़ना चाहता हूँ
मैं तो बस इसे समझ कर अपना सुरक्षा कवच बनाना चाहता हूँ
हैरान ना हों
मैं अधुमिक आदमी हूँ
जो हर मौके से फायदा निकालना जानता है
तब अभिमन्यु था की मर गया
आज मैं इस चक्रव्यूह को ही अपना ताकत बनाना चाहता हूँ।
मैं इस अंत हीन सफर को भी अपने हित में मोड़ना चाहता हूँ
क्या पता यह सफर ही मेरा व्यवसाय बन जाए!




Wednesday, May 6, 2009

एक दिल्ली यह भी

तुम्हारी दुनिया से मुख्तलिफ
हमारे तुम्हारे ख्वाबों से अलग
बिल्कुल बेरंग
बेस्वाद
बेसुरा और बेताला
मेरे अरमानों पर करता वार
एक दिल्ली यह भी है।
सरसराती कारों तथा बड़े बंगलों के शहर में
हमरे लिए महज एक ख़बर
जिस पर हम चाय की चुस्की पर
हैरान होने का आनंद ले सकते हैं।
रातों में लुटती मरती निरीह महिलाएं
और बिखरा हुआ उदास शासन तंत्र
सिर्फ़ अख़बारों के काले मोटे हर्फ़
हमें चौंकाने को बेताब।
एक तालिबान यहाँ भी है
दिन और रात में घूमता है सड़कों पर
तलाश में की कोई शिकार मिले
डरे हुए माँ बाप अपनी बेटियों की कुशल वापसी के लिए
करते दुआ
मगर मरती है कई निर्दोष बालिकाएं
कभी गाड़ी के अन्दर
तो कभी गाड़ी के नीचे
अफ़सोस
की सरकार फिर भी मांगती है वोट हमसे
हमारी बहु बेटियों के नाम पर
और मैं चिल्ला भी नही पता.

Sunday, May 3, 2009

तुम जियो हजारों साल..........

मेरे दोस्त तुम्हे क्या कहूं आज
मेरा दिल तो जबान को चलने नहीं देता
आज तुम सा एक अजिमुशान शख्स पैदा हुआ था
अज की ही दिन मेरे दोस्ती को मायने मिलना था
तुम हो की मैं हूँ
मैं हो की तुम हो
जब भी दामन फैलाया है
तुम्हारे दामन को बहुत पास पाया है
मेरे दोस्त फिर एक बार दोस्त कह कर पुकारो
मेर चश्मे नम में अब और पानी समा नहीं सकता.

एक नई सी ग़ज़ल

इस शहर में मेरा कोई नहीं है अपना
अब इसके रास्ते मुझे याद नही रहते।
नहीं है दोस्त तो न सही
मेरी तरह बेगैरत और भी होंगे यहाँ।
एक एक पत्थर चुन कर लायें हैं यह लोग
मारेंगे तो ठीक से निशाना लगा कर ही।
अपने जिस्म पर जितने भी घाव लगे हैं
उतने ही समझो हमारे चाहने वाले होंगे।
मैंने तो सोचा था यह शहर छोड़ दूँगा
मगर कौन इतने प्यार से वहां पत्थर चुनेगा।
यह शहर है रिश्तों का, मुहब्बतों का
क्या हुआ अगर मैं तनहा और बेघर ही रहा।
कभी इस मुंडेर पर बैठ कर शाम का ढालना देखो
तुम्हे भी इस शहर का अजनबीपन अपना सा लगेगा।






Thursday, April 30, 2009

इस सेहरा में

क्या हद है इस रेत के समुन्दर का
जहाँ तक जाती है निगाह
बस रेत ही रेत है
कुछ अलसाये से
ऊबे हुए ऊँट
और कुछ प्यासे से उनके सवार
सब के सब बिल्कुल निस्पृह
जैसे कुछ हो ही नहीं रहा हो।
और शयद कुछ हो भी नहीं रहा था
बस मैं था कि
पानी कि आस में
प्यास को बुझाये जा रहा था
और मेरी सजग आंखों में
उदासी तो थी
मगर थे कुछ पुराने से ख्वाब
जिनके सहारे मैंने जवानी के कुछ दिन बिताये थे
और जो आज भी मेरे लबों पर मुस्कान ला देते हैं।
अब ऊँट बड़ा दीखने लगा है
अब वह पानी कि तलाश में नहीं लगता है
उसे अब गंतव्य तक रास्ता दीखता है
सहसा वह मुझे ऊँट की जगह सिपाही लगने लगा है
सीधा
सचेत
अपने गंतव्य के प्रति उत्सुक
निश्चय ही मैं मृग मरीचिका में हूँ
अपनी आँखें बंद कर मैं
अपने प्यास सिक्त होठों पर फेर कर जिव्हा
सोने का प्रयास करता हूँ
क्या सफल हो पाऊंगा मैं?

Wednesday, April 29, 2009

मैं क्या था !

कहाँ से चल कर यह मैं कहाँ गया हूँ
इन बर्फीली हवाओं का क्या करुँ
मेरे होने को सर्द कर रही हैं
उठ रही है मेरे वजूद पर शंकाएँ
मेरे ज़मीर पर उठता हुआ गुबार
मेरी सोच को धुंधला कर देती है।
मेरी फ़िक्र अब यह नहीं कि क्यूँ
मेरी जिस्म में जुम्बिश नही होती
क्यूँ मेरी पलकें अब धुप में नही झपकती।
मेरा तो एक एकाकी सा एहसास
एक गरमाई हुई दुपहरी को
गर्म तपते सड़क पर जैसे दौड़ता हुआ
हांफता सांसे लेता
मैं
एक एकाकी
ग्रहण लगे चाँद सा
बुझे हुए दीप में गुम
इन्ही बर्फ सी ठंडी सोचों में
बस अपने अकेलेपन का गर्म एहसास
अपने हाथो में होती धड़कन
जिंदा होने का आभास दिलाती है
वरना यह भी कोई ज़िन्दगी है यारों !

ए बुढिया!

क्यूँ कोई तुम्हे बुढिया कहता है
तुम्हारे चेहरे से तुम्हारे उम्र क्या तालुक
क्यूँ कोई तुम्हे तुम्हारे काम से नही
बल्कि तुम्हारे चेहरे पर पड़ी झुर्रियों से देखता है?
क्यों तुम्हे कोई गिराना चाहता है
क्या है तुम्हारे में कि कोई डरता है तुम से
मगर फिर सोचता हूँ
हम रंग और उम्र से आतंकित
पीढी डर पीढी
इन्ही बेवजह के सवालों से जूझते रहे हैं
और उत्तर फिर हर बार वही होता है
एक लंबी सी बेमानी चुप्पी।

Sunday, April 26, 2009

एक सच.

अपने आप का एक सच
मैंने हाल ही में पहचाना है
मेरे सिवा इसे कोई जानता नहीं
वैसे भी यह एक गोपनीय सच है
वैसे ही जैसे सभी सरकारी फाइलों पर अंकित होता है अति गोपनीय
मेरा यह सच भी कुछ ऐसा ही हो गया है।
मेरे हज़ार चाहने पर भी
यह सर्व विदित है
मगर फिर भी मेरे लिए ही सही
यह एक राज़ है।
चलिए आप को बता देता हूँ
क्यूँ आप उत्सुकता से हों अधीर
मैंने अपना शक्ल देखा आईने में
और डर गया था
मुझे लगा ज्यों मैंने
देख इया हो कोई अजनबी
फिर उस रात और उसके बाद कितनी रातें मैं सो नहीं पाया
मेरा अपना वजूद मुझे छोड़ गया है
मेरी अपनी पहचान खो गई है
मैं मेले में गुम किस बच्चे सा रोता
अपनों को भरी आंखों से खोजता
कोई तो बताये
कोई तो दिखाए
मेरी पहचान का पता।
यही एक सच
यही एक असत्य
आप चाहे जिसे मान ले
मुझे बहलाने को
सब चलेगा।







Thursday, April 23, 2009

संभावनाओं की आहट!

कौन है वहां
मेरे अस्तित्व की परछाईयों में
मेरे अतीत को तलाशता
जैसे ले आया हो कोर्ट का वॉरंट
ले रहा हो जैसे करती है तलाशी पुलिस।
मेरे जहन में आया है
पूरब की ठंडी बयार सी
मेरा वर्त्तमान
कहाँ है मेरा अतीत
मुझे जहाँ तक याद है
वह पिछली बारिश में गीला हो गया था
फिर पोंछ कर हाथो से मैं
उसे लपेट कर पुराने अख़बार में
भूल हया था मैं इतने बरसों से।
तो क्यों मैं इस कदर परेशां हूँ?
क्यूँ मुझे कुछ होने का आभास सा हो रहा है?
क्यूँ लग रहा है जैसे एक अभिसारिका सी
उस कोने में कुछ खोज रही है? क्या हो सकती है वह चीज़?
मेरी खोई हुई कोई कहानी
या फिर तुम सी अप्रतिम कोई कविता
क्या जानू मैं ?

Tuesday, April 14, 2009

आग का दरिया

मेरी सोच का वास्ता ना दो
मेरी हसरतों को न कुरेदो
मेरे ख्वाब अब बुत बन कर सदियों के लिए सो गए हैं
मुझे प्यास भी अब नही लगती
मेरी मुफलिसी मेरे ईमान को हिलाती है
मेरे अरमान अब बहुत ऊपर विचरते हैं
मैं अपने आप में नहीं हूँ
या कहें की मैं तो कभी भी मैं था ही नहीं
मेरे आप में मेरा कुछ आसमान और कुछ थोडी सी ज़मीन सम्मिलित है
और मैं यही सोचता हूँ
कि मेरा क्या है
कौन हूँ मैं
क्या है मेरा व्यक्तित्व
क्या है मेरी पहचान
लगती है मुझे यह सब
जैसे आग का दरिया है
जिसके साहिल पर बैठा मैं
रूमानी कविता लिखना चाह रहा हूँ
मगर लफ्ज़ हैं की पिघलते जा रहे हैं
मेरी सोच बर्फ होती जा रही है
और मेरा स्वत्व कहीं खो गया है।
जरा ले तो आओ एक नाव
जो पार करा दे मुझे इस दरिया के
बिना जले, बिना जलाए।

Monday, April 13, 2009

सीता : अगर तुम कलयुग में जन्मी होती !

सीता तुम थी तो अग्यात्कुल्शिला ही ना
मगर फिर भी जनक ने पाला तुम्हे
और तुम्हे राम जैसा पति भी मिला
तुम सी प्रिथ्विपुत्री जब अयोध्या गई होगी
तब कैकेयी या मन्थरा ने क्या खरी खोटी नही सुनाई होगी ?
क्या कौशल्या के मन में तुम्हारी शुद्धता पर शंका के स्वर न उठे होंगे?
क्या दशरथ ने तुम्हारे जन्म से सम्बंधित प्रश्न न किए होंगे?
जिस अयोध्या के धोभी ने रावण के पाश से मुक्त होने पर भी तुम पर लांछन लगाया था
क्या वही अयोध्या तुम्हारे आने के समय भी शशंकित नही थी?
हर युग में
आज भी
हे सीता
तुम शशंकित और तिरिस्क्रित हो
और पुरूष तुम्हारे भाग्य का बन विधाता
विद्रूप से है मुस्कुराता
अफ़सोस उस युग में भी राम ने भी महज शक पर त्याग दिया था
आज भी तुम कलंकित और बंदिनी हो
चाहे गीतांजलि नागपाल हो या अमृता सिंह या रेनू दत्ता
तुम हो बस परित्यक्ता
इस पुरूष बहुल समाज में बस एक काम की चीज़ हो
आदमी का प्यार तो पा सकती हो
उसका सम्मान नहीं
आदमी वैसे ख़ुद को भी नहीं पहचान पता है
तो तुम क्या हो
वह तो बस रिश्ते तलाशता रहता है
और मिलता है उसे सिर्फ़ एक के बाद एक --शरीर.

Sunday, April 12, 2009

ए मेरे दोस्त

ए मेरे दोस्त
कैसे बताऊँ मैं तुम्हे
की कैसे कैसे राहों से गुज़र कर
मैं तुम्हारे पास आया हूँ
क्यूँ मैं चुनता रहा हूँ दिवाली की जली फुलझरियां
क्यूँ मैंने होली के गुलाल अब तक बचा कर रखा है
क्यूँ मेरी हथेलियों में अब भी है तुम्हारे दमन पर लगे खुशरंग हिना की प्यारी सी खुशबू
इतने सारे सवाल, इतने सारे जवाबों को मुन्तजिर
मेरे माजी से झांक झांक कर
मेरे आज को प्रणाम कर रहे हैं।
मेरे दोस्त आओ गले लग जाओ
क्या हुआ अगर आज हम अजनबी हैं
क्या हुआ अगर आज तुम किस्सी और जैसे लगते हो
और मैं उसी मोड़ पर
वहीँ खड़ा हूँ
ताकता हुआ राहें
जैसे कोई टूटी सी एम्बेसडर कार
सालों से किसी चालक के इंतज़ार में
बस अपने उडे हुए रंगों के साथ
करता है अनवरत इंतज़ार।

Thursday, April 2, 2009

suraj ki dhoop ka swad

जब कोई मुझसे तोड़ता है नाता न जाने क्यूँ
मैं सोचता हूँ
जैसे अब बहेगी पुरवाई
अब चलेगी ठंडी बयार
मेरे मन के प्रांगन में खिल उठेंगे फूल
और मैं मोर सा देख काले बदल नाच नाच पड़ता हूँ.
यह हवा में रचा बसा अवसाद
मेरे मुह में ज़हर का सा स्वाद
मेरे लिए लाये हो जो फूल
लाओ मैं तुम्हारे बालों में लगा दूं
महक जाएँगी जुल्फें तुम्हारी
बस जायेगी तन मन में चन्दन की खुशबू.
अच्छा एक बात पूछूं
क्या तुमने कभी छो कर देखी है
छितिज पर फैल गयी लालिमा को
क्या कभी लिया है बाँहों में
अलसाई सी धुप को
मैंने चखा है
बरसात की पहली बूँद को
ले करे हाथों में
फिर सूंघ कर हरी सी शाम की बोझिल सी मुस्कराहट को
फिर फैल गया मैं
अपने सपनो की रेत पर
लगा कर सर तुम्हारे तस्सव्वुर पर
देखो मेरे सांसो में कैसे तुम्हारी खुसबू समा गयी है
और मैं बस तुम सा बन गया हूँ.

Sunday, March 15, 2009

is had ke par

Kya hai jahan is had ke par
abhi to kafila uttha hi hai.
----------
rang-o-khushboo aur pairahan pe tabassum
chalo achcha hai wahan roshni to hai.
----------
main sochta tha yeh zamana bhi guzar jayega
magar sham tak dekha to bas sirf suraj doob haya hai.
---------------
ab yahan bhi kuch badal jayega
Suna hai is shahar mein koi naya aadmi aya hai.
----------------
ahi dekha log bahut muskara rahe hain
na jane kyun mujhe ab kisi darr ka guman ho raha hai.

Ek purani si Ghazal

kyun sham ab pehle si nahi hai

shayad mere pas koi aane waala hai.

har koi yahan sahma sa dikhta hai

shayad inhey bhi kal ka pataa hai.

mazaron pe ab kaun charagh jalayega

ab to is bazaar mein tel milta nahi hai.

bekahuf hoke jiyo yaron

ab is bura hona nahi hai.

ham ne raat ki siyah mein ghar jala diye hai

padh lo yeh khat abhi uski roshni baqi hai.

Friday, March 13, 2009

is nadi ke kinare

dekho kab se baitha hoon
main takta hua
harey hote assman ko
aur dekhta raha hoon main udte parindon ko
jo aoni hi masti mein
bilkul bekhauf
be wajah
apne aap main mashruf.
kabhi sochta hoon
kyon mere pankh nahin hain
kyon main khule aasman mein ud nahi sakta
kyon bandha hoon main
aisi bemani hasraton se.
Subah se hi
is nadi ke kinaare
baith kar
bas socha kiya hoon
kaise main apne se batein karta raha hoon
ab jab ki kahney ko kuch bhi baki nahi hai
ab jab ki main ek ghubar rah gaya hoon
ab jab ki tum bhi kis aur duniya mein gum ho gaye ho
ab jab ki maian bhi main nahi raha hoon
main bekhauf ek ehsas ke karz se dabaa
ek aag ki dariya mein
lehren gin raha roon.
Kisey parwah hai jal janey ki...............

Friday, February 20, 2009

meghdoot

Gahaney badlon ke paar
jahan kuch bhi drishya nahi hai
Jahan har kuch adrishya
har ghatna unhonee
Kisi be-rang se nabh mein
udtey panchchi ki tarah
mere apney hathon ki rekhaon ki tarah
main kis aur shatabdi ka
ek kahani sa lagney laga hoon.
Mere pas ek ateet hai
jo tohmara bhi hai
ek sanjha ateet
jo ab sepia ho chala hai
meri sari sambhavnayen
mera har prayas
tumhare nam se arambh ho kar
tumhare hone tak chala aata hai
aur main hoon ki
samajhne ki koshish mein aur bhi
nasamajh hota jata hoon.
mere meghdoot
kya yeh sandesh tum le ja paogey?
Jis bhi disha meing jao
tum barsatey raho mere sandesh
sambhavatah
hari bahri bhumi ke saath
mera bhagya bhi chahakney lagey.
Chalo ek bar hridyant se prayas to karey.

Sunday, January 25, 2009

Mujhe mere adhikaron se ladne ka adhikar tum
chheen nahi saktey
mere haathon mein hai agar dam
to hoga yudh
nahin janta ki jeetoonga ya nahin
magar ladta to rahoonga phir bhi
kyunki ladna mera prayas hai
apne aap se sahmjhauta nahin karne ka
kahne ko ki main abhi bika nahin hoon
kya hai agar mera bhi daam lag gaya ho
kya hai agar mere nam pe lag gayi ho boli
magar main to bolta rahoonga
apne adhikaron ke liye
apne bhagya ke khilaaf.
Apni likhi rekhaon ke viprit
apne hone ke praman liye
firta hoon badlon mein
kahan kahan
aur main swayam ko dekhta hoon darpan ke koney mein
kaisa aag ke sholay sa jal raha hoon main
kaise main un lapton ke andar
bas saaf bach nikalney key upay dhoondh raha tha.
ek bar fir
main sheeshey mein apni pratichhaya dekh raha hoon
kahi mera aks deekh jaye
aur
lagey ki main jeevit hoon.

Wednesday, January 21, 2009

Purwai

kamtar hain khushiyan
purnam hai aankhen
yaad jab bhi aati hai
sochta hoon
aisa kyun hota hai
kyun lagta hai ki tum mer kareeb ho
aaj bhi
ab bhi
kal bhi
aur is kal ke baad bhi.
kiska khyal
kiski baaten
mujhe meethe dard deti hai
kyun need mein auchak uth kar takta hoon tarey
kyun peshani par paseeney ki boondein
lagti hai ubharney
kyun .....................
Hamrey simt to hawa ab zard ho chali hai
hamarey hissey mein ayega tumara dard
is khyal se shayad thand aur bhi badh gayi hai
Mujhe malum hai aj rat bahut andhera hoga
kis bazar se kharidun mai roshni
kahan melega mere dard-e-safar ka hisaab?
kis kone mein
chhupi hai subah ki dhoop
kahan hai woh mahatab-e-chaman?
kaise kaise sawal
kaise betukey
kaise anjaney se
aaj kyun uth rahe rahen ye sawalat
kyun man karta hai poochoon gujri baaton ka hisaab
shayad mere pas ki hawa ab purwai ho gayi hai
ghaav sab ubhar rahe hai.

Sunday, January 11, 2009

Mere dost, Mubarak ko tumhe!!

Mere dost main aaj khush hoon
kya hua agar dekh nahin paya hun chhapey hue harf tumhare
magar main janta hoon
ki us kitab ki har soch
har lafz
mere jehan se babasta hogi/
main janta hoon ki mere
saath saath chalker hi tumne kahe honge kuch pakey adh pakey khyal
aur wahi phir tabdil ho gaye hongey
badi badi baton mein/
Main janta hoon ki tum kis tarah aadhi raat tak
jag kar socha kiye hogey
main janta hoon ki kis tarah tumharre in unjani pad yatraon par
main ban kar ek khamosh sa humsafar
tumhare saath raha hoonga
aur sun sun kar tumhari bak bak khafa hua hoonga
magar tum kabhi chup hue ho jo ab hoge?
Khuda kare tum yun hi likhtey jao
aur doston ko
nazm likne ka bahana mile.
Amen!

Monday, January 5, 2009

usne poochha tha
mera nam
jan-na chaha tha mere hone ka praman
kya mera nam mere hone se adhik mahavapoorna tha?
kya mera wahan hona ki kafi nahin tha
main tha is liye main hoon
yeh kyun zaroori hai ki mera nam hi meri pehchan ho
kyun mere mathey par likha hota hai
meri nirih manushyata ki kahani
kyun main kuch aur nahin ho sakta
jaise bargad par ugey aam
jaise ghulab mein kal subah ug aye cactus
jaise imli ka swad lage sharbat jaisa
mujhe bhi chalna pahado par lage hai jaise chal raha hoon pani par
waise hi mera nam bhi badalta rahta hai
meri badalti pehchan ke sat sath
ab shyad achcha lagega jab tum poochhogey mera nam
aur meri purnam aankhen dengi jawab
bas samjh lena
ek aur nam rakh liya hai maine
aaj main bahut khush hoon.

Saturday, January 3, 2009

kissa bina kahani ke

jab kisi ki yad aati hai to kyon

sar harf ulte seedhe dikhney lagtey hain

kyon lagta hai jaise mere ateet ki tasveeren sab deewaron par tang gayi hain

aur main nanga sa mehsoos karne lagta hoon

kyon hamara mazi hame darane lagta hai

kyon hum bachna chahtey hain

jis se hame itni muhabbat thi

kyon??

Hum kyon dartey hain apne saye se

kyon hamara hi aap hamey darane lagta hai

kya hota hai usme hamey darane ko

kuch jiye hue lamhe

kuch jiye hui mohabbat

bas kuch aur khali se alfaz

Aur kuch bujhey se ehsas

jinme ab jan baqi nahi

bas sukhe hue kagaz par

kali siyahi se likhe kuch harf

tedhe medhe

ulte seedhe

ab unme koi mani nahin baqi

bas ek udas sa kissa

jisme ab koi kahani nahin bachi.