Sunday, August 15, 2010

सुनो पाठक जी

मेरे अनजाने अनसुने पाठक लोग
(क्या है भी कोई)
संशय मेरे मन में
कौन पढता है कविता अब
जब लोगों में खूबसूरती देखने कि चाह ही नहीं हो बाकी
और न हो हिम्मत अपने बदसूरत चेहरे देखने का
जब सोच कुंद हो गयी हो
और दिमाग पैसे से भर गया हो
किताबें रद्दी में बेचीं जाती हों
कौन पढ़ेगा कविता?
एक सहज अनुभूति
कुछ पुरनम आँखें
कुछ भीगे से एहसास
अब तो बाज़ार में भी नहीं मिलते
लोग लायें तो कहाँ से ।

Tuesday, August 3, 2010

फिर वही ढेर सी रातें

देखो चाँद को तो ऐसा लगता है
जैसे रात अब जाएगी नहीं
ठहर कर मेरे पीपल के पेड़ पर
मेरे आँगन कि मुंडेर पर
बैठा एक कौव्वा
मेरे घर आने का दावत सभी आने जाने वालों को दे रहा है।
एक सच जो कई रातों से काट रहा है मुझे
कभी सुना था किसी से कि
काली अँधेरी रात को
जब अँधेरा बढ़ता है
पलकों में नींद और आँखों में सपने बसने लगते हैं।
तोड़ कर रख लेते हैं जैसे
अपनी क्यारी से निकले
गोभी के फूल हों
न सही गुलाब, न होंगे कांटे
मगर कभी देखा है गुलाब को फूलदान में सजे हुए
उसकी किस्मत है थाली में परोसा जाना
जैसे चाँद को डूबना ही होता है सुबह के आने से पहले।
क्या खेल हैं किस्मत और फितरत के!