Wednesday, June 9, 2010

जब कहने को कुछ भी न हो

देखो जरा मुड़ कर
एक रास्ता छूटा है
नुक्कड़ पर, मोड़ कर पैर एक कौव्वा
काफी देर से बैठा है
उड़ता ही नहीं।
सामने एक दूकान में
बैठी एक लड़की फेंकती रही दाना
कव्वे ने खाया नहीं
बस चलता रहा यही सब
देर तक।
कहीं से फिर सुनायी दी
किसी के हंसने की आवाज़
देखा जो मुड़ कर तो कोई नहीं
अभी भी वही लड़की
फ़ेंक रही थी दाना
और अभी भी वह कौव्वा
चुप चाप बैठा
टुकुर टुकुर ताक रहा था।



Tuesday, June 8, 2010

यह हसरतों का लम्बा सिलसिला

दिल भी चाहे कितने रंग
और हर रंग कि अपनी मांग
हर कदम पर लगी है उमीदों कि लम्बी कतार
एक को पूछो तो दूसरा हो हाज़िर
किस किस कि करें फरमाईश पूरी?
ज़िन्दगी है एक लम्बा छोटा सफ़र
काटो तो कटे नहीं, जियो तो बस इंतहा
थाम कर दमन अगर चाहो चलना
तो छूट जाएँ राहें
पतली संकरी पगडंडियों पर
दौड़ते रहे हम जिन पर
आज कदम रखना भी मुश्किल
फिर थामने को किसी का दमन भी तो नहीं।
उफ़ इन लम्बी राहों का सफ़र छोटा होता क्यों नहीं
या फिर यह सुस्त कदम उड़ते क्यों नहीं!




एक दिवास्वप्न यह भी!

दिल्ली में तो कुछ भी सपना हो सकता है
सड़क पर चल कर उस पार जाना
चलती बस के नीचे नहीं आना
पुलिसके हाथों पिट न जाना
या फिर चलती गाडी से अपने मुंह पर पान का पीक न पड़ जाना
धुएं की मार से फेफड़ा जल न जाना
या यूं ही रोटी को तकते आँखों का सूख नहीं जाना
यह दिल्ली है भाई.

Thursday, June 3, 2010

क्या कहना है !

मेरे हर सवाल का वही घिसा पिटा सा जवाब
क्यों हर उलझन का बस फिर वही समाधान
नए हौसलों का कुछ काम नहीं यहाँ
नए फैसलों पर होते रहे हैं ऐतराज यहाँ
मुस्कुराहटों पर लगी है पाबन्दी भी
हाथ के इशारों पर हुए बलवे
बाँहों की हरकत से हुए हैं कई अहम् फैसले
बदलते हैं रंग कई चेहरों के
थाम कर अपना चेहरा
सोचता हूँ अपनी किस्मत पर
क्या कहूं? क्या छुपाऊँ?