Saturday, October 30, 2010

मैं लिखता हूँ इस लिए..

बैठा समुद्र के किनारे
सोचता रहा देर तक
क्यों लिखता हूँ मैं
क्या लिखता हूँ मैं
कौन पढता है मुझे
कितना बेमानी है यह लिखना-पढना
सच बस एक है
वही जो हम भोगते हैं
वही जो हम सोचते हैं
जीवन को जीने का अंतर्द्वंद
मुझे स्मरण कराता अहर्निश।
अपने आप को करता विस्मृत
थामे कलम को
करता रहा काले सफ़ेद पन्ने
इन पृष्ठों का क्या कोई अपना भी
फ़साना होगा क्या?
यही सोचते कट गया एक और सफ़र
अनंत सा सफ़र
और अनादी इच्छाएं
एक साधारण सा मनुष्य
मगर असाधारण इच्छा
कि बनूं एक अच्छा इंसान
मगर लगता है
है कितना कठिन यह भी
जैसे मिठाई का मीठे के सिवा कुछ भी होना
कितना असार्थक होता
वैसे ही
मेरा मनुष्य होना कितना साधारण
मनुष्य होने कि चाह कितना असाधारण!



2 comments:

  1. सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।

    ReplyDelete
  2. behad khoobsurat rachana.....achchhi prastuti

    ReplyDelete