Wednesday, October 27, 2010

किसने कहा कि में हूँ !

एक आवाज़ उठी है पूरब से
कुछ दिखा है मुझे हर तरफ
सोचने को जब नहीं हो कुछ भी बाकी
ज़िन्दगी अपने आप में कितनी अधूरी
बस बिलकुल मेरी कहानी की तरह।
मेरे अफ्सानो का तर्जुमान कोई करे तो क्या करे
हर्फ़ मिटे जाते हैं
मानी है कि मिलती नहीं
लफ़्ज़ों की हकीक़त अब क्या बताऊँ
मैं खुद से हैरान हूँ।
तुम सुनो तो कहूं
एक दम से एक रक्कासा जैसे नाच उठे
मेरे पाँव में हुई थिरकन
मेरे ख्यालों में हरकत
मेरे बाँहों में उठ रही कशमकश
मैं तो ज्यों मिट चला हूँ
मैं जैसे हूँ ही नहीं
तुम हो जैसे सब तरफ
न जाने यह क्या हो रहा है मुझे!

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