Thursday, November 5, 2009

बहुत दिन हुए

एक अरसा बीता है तुमसे
दो चार हुए
एक तनहा सा दिल
एक भीड़ का सा एहसास।
तालाब का पानी भी कम पड़ रहा है
मेरे अरमानो के गीले होने के लिए
सूखे पत्तों पर गिरे भी ओस की बूँदें तो क्या कीजे
समेट लीजे मेरे दर्द अपनी अंजुली में
मगर फिर भी यह याद रहे
मेरे वजूद में लगे हैं टाँके
मेरे होश को ले गया कोई चील अपने चोंच में दबा कर
चलो इन्ही ख्यालो
को दे कर परवाज़
भर कर बाँहों में एक सारा आसमान
और मुट्ठी में भरी हो आग
चलो छु कर देखते हैं इस आग की तासीर।

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