Saturday, October 6, 2012

इस के बाद क्या

इस मोड़ पर
मुड़ गए रास्ते
हो गए तब्दील
सब चौराहों में
अब दिखती नहीं कोई भी मंजिल।

दूर क्षितिज पर है कोई
जैसे दुश्मन जाना पहचाना सा
मेरी सोच की धरातल पर उभरता रहा
देर तक
उबलता रहा पानी चाय के लिए
 ठंडी होती रही आशाएं।

फिसलता रहा हाथों से
जैसे हो रेत का ढेर
चुनता रहा मै
तिनके असमान से गिरे
पीला हुआ आसमान
मरती रही सांसें
जिंदा करती उम्मीदें।

सोचता रहा
एक गहरे शुन्य में
एक दिवास्वप्न
एक मरीचिका
रूमानी
भयावह
सिसकती रही मेरे आँखों में
लिए अपने आगोश में
बंद किये आँखें
बस अपने आप से लड़ता रहा।

चुप हो जाऊं
ऐसा तुमने कहा था
कोई दे रहा है दस्तक
ठहरो 
देख कर तो आऊँ
यह हवा भी न
मेरे ज़मीर को धिक्कारती है
बस और नहीं
अब बस
बंद कर दिए सारे दरवाज़े
लो हो गयी बंद दस्तक भी।














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