Thursday, January 5, 2012

चांदनी की राहों पर



बस एक हम है रत कि चांदनी में रौशनी थामे   
ज़रा छू कर देखो इस अंगारे  की तबस्सुम 
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कहते हैं इस राह पर जो चला वही खोया
चलो देखते हैं यह रह जाती कहाँ तक है
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एक बार तुमने कहा था मोम कि तरह क्यूँ पिघल जाते हो
मैंने जलते मोम में डाल कर हाथ जाना उसकी तासीर 
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मेरे अरमानों को छू कर देखो तो
नदी के पार साहिल के गिले रेत सा क्यूँ है
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मेरे वजूद का क्या ठिकाना, क्या पता
ढूंढता रहा, और इस मोड़ पर ठहर गया मैं 
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मैंने सोचा क्या था मुझमे जो वह छोड़ गया मुझे
पलट कर देखा तो लगा मेरा साया गायब था
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मुझे याद आती है उन गलियों के पेचीदगियां 
जिनमे घूम कर हमने सीखा था सीधे राह चलना
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