न हो सर पर आसमान तो क्या फ़िक्र
पांव के नीचे ज़मीन नहीं तो क्या फ़िक्र
ज़ुल्म सहने की अब आदत सी पड़ गयी है यारों
न हो पेट में दाना ओर तन पर कपडे तो क्या फ़िक्र।
तुम्हारी सियाह किस्मत पर लगाते हैं चांदनी का लेप
सुर्ख हो रही आदतों को लपेट कर पेशानी पर
जब बोलने को हो कुछ नहीं मगर चुप रहना मुमकिन नहीं
वह कहते हैं कि यही आगाज़ है कल की सुबह का।
मैं नहीं जानता कि सच के क्या रंग हैं
कितनी हवस है मेरी सोच में अपना वजूद जान ने की
मेरे दोस्तों की कतार जरा छोटी है
बस मेरी उमीदें अब मेरी चादर से लम्बी हो गयी हैं।
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