कल रात दिखा मुझे माजी के फ़साने
कुछ सीधे कुछ टेढ़े
थामने को बढाया हाथ तो फिसल गए हाथों से
उड़ने लगी उम्मीदें
फ़ैल गए अरमान
छोटे पड़ गए दामन
लेट कर ज़मीन पर ताकता रहा नीले आसमान को देर त़क
अब तारे भी नहीं दीखते
चाँद तो पहले भी अजनबी था
अब तो हँसता भी नहीं।
देर से चल रही है तेज हवा
शायद तारे बह गए हवा के साथ
मेरा हाथ काँपता है
पकड़ नहीं पाता मैं चाँद को भी
देखो जरा मेरी पेशानी पर तारे उग आए हैं
हर किसी को पूछता हूँ उसका पता
सब सर हिलते हैं
कोई कुछ कहता नहीं।
हवा में बसी है धानी सी मस्ती
तुम्हारे हाथों की खुशबू
तुम्हारे चेहरे का तिल
तुम्हारे हाथों की स्वप्निल खुमारी
सोचता रहा
क्या कहूँगा इस बार.
बहुत ही सुंदर .... एक एक पंक्तियों ने मन को छू लिया ...
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